शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

मुझी को खुद पता नही


रक़ीबों की ख़बर नही, दोस्तों का पता नही,
किस हाल में मैं जी रहा मुझी को खुद पता नही।

तेरी हूँ बस तेरी हूँ मैं जबाँ पे तेरे शोर था,
जमीं पे मेरे पग नहीं, तेरे प्यार का सब जोर था,
बाट जोहता हर घड़ी, मैं चांद तू चकोर था,
आँखें मेरी सपने मेरे टूटे अगर तो टूटे सही..
तेरी मगर ऐ जाने जाँ, इसमें कोई खता नहीं।
किस हाल में मैं जी रहा मुझी को खुद पता नहीं।

तूझे मांगने मस्जिद कभी मंदिर गया उम्मीद से,
हुई हर हुक्म की तामील तेरे मुरीद से
पल भर में हरे हुए जख्म जो थे सदीद से...
दे कर फिर उसे छीना गया, मिलकर फिर मिला नहीं...
 तेरे लिए तेरी चाह में खड़ा हूँ मैं गिरा नहीं...
किस हाल में मैं जी रहा मुझी को खुद पता नहीं।

(मैंने)आवाज़ दी कि साथ चल, न आये वो मर्जी उनकी,
उसने भी अनसुनी कर दी, मेरी वो अर्जी मन की,
अहमियत खूब रखती है आज, खुदगर्जी जीवन की।
तू कैसी बदनसीब है,मैं सबका हूँ पर तेरा नहीं...
रोका गया संभाल कर तभी तो मैं बिखरा नही...
किस हाल में मैं जी रहा मुझी को खुद पता नहीं।


रक़ीबों की ख़बर नही, दोस्तों का पता नही,
किस हाल में मैं जी रहा मुझी को खुद पता नही।

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...