मैने केन्द्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना पर सवाल उठाये जाने वाली याचिका को लेकर कुछ तैयारियाँ की थी... मैं इस पर अपना पक्ष रखने की तैयारी कर ही रहा था कि सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने इतिहास रच दिया.... और मुझे अपना विषय बदलना पड़ा... लेकिन उसपर फिर कभी बात करेंगे....फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक जजों की बात करते हैं.... साल 1997 में एक फिल्म आयी थी जज मुजरिम जिसमें जीतेंद्र जज थे और सुनील सेट्टी मुजरिम.. आज देश के सामने जज ही मुजरिम हैं... कौन से वाले ये आप तय करेंगे...हम बस अपनी बात कहेंगे....
सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए गए नैतिक मूल्य कहते हैं कि जज मीडिया से बात नहीं करेंगे.... यो कोई बाध्यकारी कानूनी व्यवस्था नहीं है। बल्कि न्यायपालिका द्वारा स्वेच्छा से स्वीकार किया गया नियंत्रण है।
सात मई, 1997 को सुप्रीम कोर्ट ने फुल कोर्ट में न्यायाधीशों के लिए नैतिक मूल्य (रिइंस्टेटमेंट ऑफ वैल्यू ऑफ ज्युडिशियल लाइफ) स्वीकार किए थे और इसे 1999 में चीफ जस्टिस कान्फ्रेंस में मंजूरी देकर पूरी न्यायपालिका के लिए स्वीकार किया था। सोलह बिंदुओं के इन नैतिक मूल्यों का नवां बिंदु कहता है कि जजों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने फैसलों के जरिये बोलेंगे। वे मीडिया को साक्षात्कार नहीं देंगे।
जैसा कि चार वरिष्ठ न्यायाधीश कह रहे हैं कि गड़बड़ी है।लोकतंत्र खतरे में आ गया.... वैसा हो सकता है। हम उसके सही गलत होने पर नहीं जाते। लेकिन, जिस तरह से इस मामले को उठाया या उछाला गया है, उससे जनता का न्यायापालिका पर विश्वास हिलेगा उसमें कमी आएगी... जो कि आ चुकी है...सलमान खान शराब के नसे में 7-8 लोगों को कुचल कर बाइज्जत बरी हो जाते हैं लेकिन कोई भी जज प्रेस कन्फ्रेंस नहीं करता अलग बात है तब लोकतंत्र भी खतरे में नहीं होता न ही न्याय व्यवस्था में गड़बड़ी होती है... लेकिन जिस गीता की कसम खिलाते हैं उसी को लेकर फैसला करने वाले जज आज भी नहीं कह सकते कि सलमान बेकसूर हैं....वो अलग बात है....हम बात कर रहे थे न्यायपालिका के 16 बिंदुओं की जिसका नवां बिंदु कहता है कि जजों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने फैसलों के जरिये बोलेंगे। वे मीडिया को साक्षात्कार नहीं देंगे। ये भी बता दें कि हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश ने ब्लॉग लिखना शुरू किया था और बाद उनके ब्लॉग लिखने पर रोक लगा दी गई थी। जजों द्वारा इस तरह से खुल कर मीडिया और जनता में बात करने का भारतीय न्यायपालिका में रिवाज नहीं रहा है।
कुछ महीनों के घटनाक्रम पर निगाह डालें तो साफ हो जाता है कि पहले भी इस तरह के मतभेद सामने आते रहे हैं। फिर वो चाहें मेडिकल कालेज मामले में मनचाहा आदेश दिलाने के लिए जजों के नाम पर रिश्वतखोरी का केस हो या फिर जज बीएच लोया की रहस्यमय मौत की जांच से जुड़ी नयी याचिका पर सुनवाई का मुद्दा।
अब कब क्या हुआ वो समाचार पत्रों के वेबसाईट पर हैं आप पढ़े और समझ आ जाये तो खुद ही नतीजे पर पहुंचे... मैं बस अपनी बात रख रहा हूँ किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं हूँ.....
अगर इन चार जजों को मुख्य न्यायाधीश की कार्य प्रणाली से एतराज था तो वे सभी जजों की सुबह होने वाली बैठक में इस मुद्दे को उठाते और एक आम सहमति बनाने की कोशिश करते। अगर यह तरीका कारगर नहीं हुआ जैसा कि प्रेस कन्फ्रेंस में कहा गया तो फिर ये जज मुख्य न्यायाधीश की केस आवंटन प्रक्रिया के खिलाफ स्वयं संज्ञान लेते हुए फैसला दे सकते थे। ऐसा कोई फैसला स्वत: सार्वजनिक होता और कम से कम उससे यह ध्वनि न निकलती कि सार्वजनिक तौर पर कुछ जज मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ सड़क पर आ गए हैं...
अगर यह मान भी लिया जाए कि केसों के आवंटन का काम सही तरह से नहीं हो रहा था तो क्या उसके खिलाफ इस तरह खुले आम आवाज उठाना न्यायपालिका की गरिमा के अनुकूल है? क्या मामले जिन जजों को दिये गए आप उनकी क्षमता पर सवाल खड़े नहीं कर रहे क्या आप उन्हें अययोग्य मानते हैं.... आधुनिक न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत कहता है कि आप चाहे जितने भी बड़े क्यों न हों, कानून आपसे बड़ा होता है। आप अदालत की अवमानना कर रहे हैं खुद जस्टीस हो कर... कानून के अनुसार ऐसा कोई बयान जो अदालत की गरिमा को गिराता है, अदालत की अवमानना है। अगर कोई अदालत की अवमानना संबंधी कानून को गौर से पढ़े तो यही पाएगा कि इन चार जजों के बयान अवमानना की श्रेणी में आते है। यही बात उन वकीलों के बारे में कही जा सकती है जो चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के तुरंत बाद उनके समर्थन में सक्रिय हो गए। जिस तरह चंद वकील इस मामले में जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे है... उससे भी कई सवाल खड़े होते है। अगर किसी रिपोर्टर ने अपनी खबर में ऐसा कुछ लिखा होता कि सुप्रीम कोर्ट में जजों को केसों का आवंटन भेदभाव के तहत किया जा रहा है तो इसे अवमानना मानकर उसे तलब कर लिया जाता, लेकिन इस मामले में बार ही नहीं बेंच भी बंटा हुआ दिख रहा है और उनके बीच के मतभेद एक-दूसरे पर आरोप के जरिये सामने आ रहे है। यह आदर्श स्थिति तो नहीं और इसीलिए यह कहा जा सकता है कि जो कुछ हुआ उससे सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा प्रभावित हुई है।
सर्वोच्च न्यायालय ही नहीं उच्च न्यायालय के पास भी दो तरह के कार्य होते हैं। पहला, न्याय का निष्पादन करना और दूसरा न्याय प्रशासन देखना। यह दूसरा काम आम तौर पर मुख्य न्यायाधीश के हाथ में होता है। जजों के पास केवल फैसले देने का काम होता है। कोलेजियम की व्यवस्था के तहत पांच सबसे सीनियर जज नए जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी भाग लेते हैं। यह हैरान करता है कि एक दिन पहले कोलेजियम दो न्यायाधीशों के नाम तय करता है और अगले दिन चार वरिष्ठ न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ मोर्चा खोल देते है। अगर यह सही है कि मुख्य न्यायाधीश सभी समान लोगों में से केवल पहले नंबर पर होते है और इससे अधिक कुछ नहीं तो फिर यही बात सुप्रीम कोर्ट की सभी बेंचों पर भी तो लागू होती है....दैनिक जागरण में भूपेंद्र सिंह का लेख पढ़िये हिंदी में है, सरल भाषा में....अंग्रेजी की दुनियाँ में हिंदी लेखों को नजरअंदाज मत कीजिए....और टीवी देखना मत छोड़िये बहुतों की रोजी रोटी का सवाल है...फिर मिलेंगे....
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