स्कूल जाने और आने से लेकर बच्चों के स्नेह और प्यार को समर्पित ये पक्तियां कोई एक बार सुने तो बार बार सुने... मां पर लिखी पूरी की पूरी ग़जल ही शानदार है... लाइन आपको सुनाता हूँ....
कदम जब चूम ले मंज़िल तो जज़्बा मुस्कुराता है, दुआ लेकर चलो माँ की तो रस्ता मुस्कुराता है
किताबों से निकल कर तितलियाँ किस्से सुनाती हैं...टिफ़िन रखती है मेरी माँ तो बस्ता मुस्कुराता है...
टिफिन रखने के बाद भले ही बस्ता अब भी मुस्कुराता हो लेकिन मां यें परेशान हो जाती हैं... उन्हें दिन भर चिंता सता रही होती है कि मेरा बच्चा सही सलामत घर आयेगा कि नहीं... उनकी ये चिंता आज के समय के हिसाब से पूरी तरह जायज है... खासकर विगत कुछ दिनों में जो घटनायें सामने आयी है वो चौंकाने से ज्यादा चिंता जनक हैं... बच्चों को पहले व्यस्क अपराधियों से सावधान रहने की आवश्यकता पड़ती थी... लेकिन बच्चों को अब बच्चों से ही सावधान रहने की जरुरत है। बच्चों के दीदी औऱ भईया लोग अब इतने क्रूर हो गए हैं कि बिना वजह वो बेरहमी से मासूमों को जान से मार रहे हैं... जहाँ बच्चों को समाज में रहने और जीने की कला सिखाई जा रही है वहीं बच्चे मौत का तांडव सिख रहे हैं... अगर हमने आज ये जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर बच्चे एक तरह के मानसिक विकार से ग्रसित क्यों हो रहे हैं तो कल को यही चीजें समाज में कैंसर की तरह भयानक हो चुकी होंगी... हमारे लिए ये जानना जरुरी है कि आखिर मासूम खूंखार कैसे होते जा रहे हैं....ये कहना गलत होगा कि हालात प्रद्युम्न हत्या कांड के बाद खराब हुए हैं... मैं कुछ खबरें आपको पढ़कर सुनाता हूँ,
आप खुद अंदाजा लगाईये कि ये मासूम किस तरह पेशेवर कातिल बनते जा रहे हैं.....साल 2015-फर्रुखाबाद के प्राथमिक स्कूल में दो छात्रों के बीच मारपीट का ऐसा अंजाम किसी ने सोचा नहीं होगा। तीसरी के छात्र ने पहली के छात्र को प्लास्टिक की बोरी में बंदकर लात-घूंसों से जमकर पीटा। कक्षा में चीखपुकार मचती रही लेकिन स्कूल के शिक्षकों को पता तक नहीं चला। रविवार को पीडि़त मासूम ने अस्पताल में दम तोड़ दिया।
बोकारो में एक किशोर ने दूसरे किशोर की हत्या सिर्फ इस लिए कर दी कि उसके दोस्त ने मांगने पर उसे मोबाइल नहीं दिया। पुलिस की जांच में खुलासा हो सका कि हत्या के पीछे स्मार्ट फोन की चाहत थी। इतना ही नहीं गला घोंटकर हत्या करने के बाद शव की पहचान न हो सके इसके लिए एसिड डाल कर चेहरा भी बुरी तरह से जला दिया गया... सोचिये कि एक किशोर अपने साथी की हत्या के समय कितना क्रूर हो रहा था....
प्रद्युम्न मर्डर केस की कहानी आपके सामने है... उसी के तर्ज पर यूपी के त्रिवेणीनगर में स्थित ब्राइट लैंड कॉलेज में भी कक्षा एक के छात्र ऋतिक की हत्या की कोशिश की गई... छात्र स्कूल के स्टाफ बाथरूम में लहूलुहान हालत में मिला। उसके हाथ-पैर बंधे थे और मुंह में कपड़ा ठुंसा हुआ था। पुलिस की पूछताछ में पीडि़त छात्र ने स्कूल की ही सीनियर छात्रा पर चाकू से हमला कर दुपट्टे से गला कसने का आरोप लगाया। छात्र ने बताया कि दीदी मारते समय बार-बार यही कह रही थी कि स्कूल में छुट्टी के लिए तुम्हारी हत्या जरूरी है। एसएसपी दीपक कुमार ने बताया कि आरोपित 11 वर्षीय कक्षा सात की छात्रा है....
ग्यारह साल की लड़की में इतनी हैवानियत भरी कैसे होगी...दिमाग काम करना बंद कर देगा....आखिर स्कूलों में ऐसा क्या हो रहा है कि स्कूल की छुट्टी हो जाये इसके लिए बच्चे दूसरे बच्चों को जान से मार रहे हैं... घटनायें हमारी शिक्षा पद्धिती पर भी सवाल खड़े कर रही है और समाजिक व्यवस्था पर भी... टीवी और सिनेमा में दिखाये जा रहे सामाग्रियों पर भी सवाल उठता है...
रिसर्च करने वालों का मानना है कि स्क्रीन पर दिखाई गई हिंसा किशोरों के दिमाग पर बुरा असर डाल कर, उन्हें संवेदनहीन बना रही है| उन्होंने चिंता जताई है कि दिमाग का वो हिस्सा जो भावनाओं को नियंत्रित करता है और बाहरी घटनाओं पर प्रतिक्रिया जताता है, वो बचपन के दौर में विकसित हो रहा होता है| दिमाग का यही हिस्सा संवेदनहीन होने की बात सामने आ रही है| जांच करने वालों के पास हिंसक दृश्यों के देखने के कारण कुंद हुए दिमाग के काम न करने के पक्के सबूत तो नहीं है लेकिन जो संकेत मिले हैं वो भी अच्छे नहीं|
अमरीका की “नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यरोलॉजिकल डिसॉर्डर एंड स्ट्रोक” के जॉर्डन ग्राफमैन और उनके साथियों ने हिंसक दृश्यों का असर देखने के लिए 22 बच्चों पर प्रयोग किए| इन सबकी उम्र 14 से 17 साल के बीच थी|, प्रयोग के बाद जो नतीजे मिले उनसे पता चला कि हिंसा देखने का समय बढ़ने के साथ बच्चों की .त्वचा और दिमाग की हरकतें कम होती गई|...ग्राफमैन ने बताया कि “हमने देखा कि ज्यादा हिंसा वाले दृश्यों को देखने के दौरान समय बीतने के साथ, बच्चों के दिमाग की सक्रियता कम होती चली गई| ये कमी दिमाग के उस हिस्से में हुई, जो भावनाओं को नियंत्रित करता है और उन पर प्रतिक्रिया जताता है, यही हाल त्वचा पर होने वाली संवेदनाओं का भी था|”
अब सवाल हर किसी से है...सवाल माता-पिता से भी है, आप बच्चे के अच्छे कामों पर खुद की पीठ थपथपाते है तो ऐसे अपराधों में आप भी बराबर के दोषी है। कोई परीक्षा रुकवाने के लिए हत्या कर देता है तो कोई मोबाईल के लिए... दिल्ली में हुए बहुचर्चित “निर्भया” प्रकरण में भी सबसे ज्यादा हैवानियत एक नाबालिग ने ही की थी। एक सर्वे के मुताबिक नये अपराधियों में 94 प्रतिशत अपराधी 10 से 25 साल के हैं। कुछ घटनाओं को अगर अपवाद मान कर नजरअंदाज भी करें दें तो इस बात से मुंह नहीं मोड़ सकते कि आने वाली जेनरेशन खिझी हुई, उग्र और धैर्य हीन जेनरेशन है... ज्यादा तर फ्लैट सिस्टम वाले एकाकी परिवार वाले बच्चे संवेदनहीन पाये जा रहे हैं.... घर पर बड़ों का बच्चों के साथ वक्त बिताना जरुरी है...
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