क्या आप लगातार 33-34 घंटो तक बिना अन्न-जल ग्रहण किये रह सकते हैं? मैं अभाव काल की बात नहीं कर रहा..आपके घर में किसी चीज़ की कमी नहीं है.. सभी खाने योग्य स्वादिष्ट पदार्थ और पेय आपके घर में हैं... मां लक्ष्मी की साक्षात कृपा है आप पर अब आप बताइये क्या आप 33 घंटो तक बिना अन्न जल ग्रहण किये रह सकते हैं... जवाब होगा नहीं... क्यों रहें...?
लेकिन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की निवासी माताएं जो इस वक्त जहां कहीं भी हैं वे अपने बेटों या बेटे की लंबी आयु और उत्तम स्वास्थ्य की कामने के लिए व्रत पर हैं. नई मां से लेकर बुढ़ी माताओं ने जो शरीर से अस्वस्थ और कमजोर हैं उन्होंने भी इस व्रत को रखा हुआ है. मेरी दादी जो अब 75 साल से अधिक की हो चुकी है उन्होंने भी इस व्रत को रखा है. व्रत का नाम जितिया है. इस साल यह व्रत लगभग 33 घंटो का है इस दौरान व्रति माताएं फलआहार तो दूर पानी तक नहीं पिएंगी.
दादी को उनके बेटों और बहुओं ने समझाने की कोशिश की लेकिन वो नहीं मानी और न कभी मानेंगी. क्योंकि वो एक मां हैं. वो एक भारतीय मां है. जब हम भारतीय मां की बात करते हैं यह दुनियां भर की माओं से अलग होती हैं. हमारे देश में मां- बेटे का नाता दूसरे जगह की तुलना में अधिक भावुक होता है. माताएं बुढ़ापे तक अपने बेटे की मंगल कामना करते नहीं थकती भले बेटे एक आयु के बाद अन्य चीजों में व्यस्त हो जाये लेकिन माताएं अन्य चीजों में व्यस्तता के बाद भी बेटों के लिए समय निकाल लेती हैं. आज के कई मॉडर्न बेटे मां बाप को बोझ समझने लगे हैं यह हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा लेकिन पश्चिम की काली संस्कृति हमारे उज्जवल संस्कृति को मलिन कर रही है. काफी हद तक कर चुकी है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है देश में वृद्धाश्रमों की बड़ती संख्या.
कई साल पहले डॉक्यूमेंट्री के सिलसिले में दिल्ली के नजफगढ़ में स्थित एक वृद्धाश्रम में जाने का मौका मिला. वहां रह रही वृद्ध लोगों से कई विषयों पर संवाद करने का और उनकी जिंदगी में झांकने का मौका मिला. ज्यादात बुजुर्ग संपन्न परिवार से आते थे. उनके बच्चे अच्छी नौकरी या व्यवसाय में थे, फिर भी उन्हें वृद्धाश्रम में रहना पड़ रहा था. बातचीत के बाद जब भोजन का समय हुआ तो संचालकों ने मेरी टीम को भी मध्यान भोजन के लिए आमंत्रित किया. हम सब पहुंचे भोजन किया. इस बीच एक वृद्धा जिनकी आयु 80 साल के आस-पास रही होगी उन्होंने भोजन नहीं किया. वे अपनी चारपायी पर पड़ी रहीं. हमने अपनी जठराग्नि को शांत करने के बाद उनसे बातचीत करनी चाही.हमने कई बार उनसे संवाद करने की कोशिश की वे बोल नहीं पा रही थीं . उनके पास खड़ी सहायिका जो इन बुजुर्गों का देखभाल कर रही थी ने जानकारी दी कि आज उनका उपवास है. आश्चर्य से अपने मन में आज की तिथि याद करने लगा...कार्तिक मास कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि.सहसा ध्यान आया आज अहोई अष्टमी है. अहोई अष्टमी उत्तरभारत में जितिया की तरह ही अपने बेटों की मंगलकामना के लिए किया जाने वाला व्रत है. इस दिन अहोई माता की पूजा होती है और उनसे अपने बेटों की लंबी उम्र की कामना की जाती है.
मेरे पैरों तले की ज़मीन खिसक गई.. मेरे मन में विचार आ रहे थे जिन बच्चों ने इस वृद्धा को यहां छोड़ दिया है वो उन्हीं बच्चों के मंगल कामना और लंबी उम्र के लिए प्राण दांव पर लगाकर व्रत की हुई है. तभी शंकराचार्य जी ने लिखा है कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति...
मैं गलत भी हो सकता हूं लेकिन मुझे अभी तक एक भी ऐसे व्रत के बारे में नहीं पता जो बेटे अपने माता पिता के लिए करते हों... न ही आज के जमाने के बेटों में उतनी आस्था शेष रह गई है. क्योंकि आज के समय में आस्था को पिछड़ेपन से जोड़ दिया जाता है. अंग्रेजों और आक्रमँकारियों ने ऐसा क्यों किया समझा जा सकता है आप और हम ऐसा क्यों कर रहे हैं समझ के परे है. कुल मिलाकर क्या हम इतना कर सकते हैं कि अपने घर के बुजुर्गों के अंतिम दिनों को आसान बना दें... उन्हें ऐसा महसूस करायें कि आप हमारे लिए कितनी प्रमुखता रखते हैं? क्या हम उन्हें एक सम्मानजनक विदाई भी नहीं दे सकते?
सोचियेगा जरुर कि जो आखिरी दम तक हमारे भले के लिए सोचते रहते हैं क्या हम उनके जीवन के अंतिम क्षणों को थोड़ा सुंदर और गरिमामय नहीं बना सकते... याद रहे हम भी एक दिन बुढ़े होंगे...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें