ताल्लुकात
में पड़ी है दरार दिखाते हैं।
आओ अपना अपना एहसान गिनाते हैं।
तुम
दो कहो हम चार सुनाते हैं।
रिस्तों
का दम घूट रहा है,अब उनका गला दबाते हैं।
हमने
जब भी खुशी चाही,
जिंदगी
ने कहा तुम्हें गम से मिलाते हैं।
घर
के दिये रौशन कैसे होंगे?
मेरे
अपने ही हैं जो हवा बहाते हैं।
हमें
सर्दियों का खौफ नहीं है,
खुद
को आज भी पुराना लिहाफ ओढ़ाते हैं।
तुम
अपनी हीं पीठ पर चला लो खंजर,
जख्म
हीं दर्द सहना सिखाते हैं।
मैं
जाहिल हूं लहजा बदल नहीं सकता,
चलो
कुछ अरमानों को मिट्टी में मिलाते हैं।
वफ़ा
का नाम हो चूका बहुत बदनाम,
अब
जरा काम बेवफाई से चलाते हैं।
-राजन कुमार झा
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