सोमवार, 7 नवंबर 2016

बदलते लिहाज

ताल्लुकात में  पड़ी है दरार दिखाते हैं। 
आओ अपना अपना एहसान गिनाते हैं।

तुम दो कहो हम चार सुनाते हैं।
रिस्तों का दम घूट रहा है,अब उनका गला दबाते हैं।

हमने जब भी खुशी चाही,
जिंदगी ने कहा तुम्हें गम से मिलाते हैं।

घर के दिये रौशन कैसे होंगे?
मेरे अपने ही हैं जो हवा बहाते हैं।

हमें सर्दियों का खौफ नहीं है,
खुद को आज भी पुराना लिहाफ ओढ़ाते हैं।

तुम अपनी हीं पीठ पर चला लो खंजर,
जख्म हीं दर्द सहना सिखाते हैं।

मैं जाहिल हूं लहजा बदल नहीं सकता,
चलो कुछ अरमानों को मिट्टी में मिलाते हैं।

वफ़ा का नाम  हो चूका बहुत बदनाम,
अब जरा काम बेवफाई से चलाते  हैं।


-राजन कुमार झा

इस कविता से जुड़े सर्वाधिकार राजन कुमार झा के पास हैं.  कविता के  किसी भी हिस्से को राजन कुमार झा की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता. इसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी.





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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...