उत्तर प्रदेश के इतिहास में आज का दिन सियासी हलचलों से भरा रहा। 5-6 महीनो से चला आ रहा राड़ बाहर आगया। इस अलगाव के कयास तो जनता पहले से ही लगा रही थी, लेकिन किसी भी तरह इस कलह को रोकने के प्रयास सफल हो रहे थे। लेकिन 30 दिसंबर 2016 की शाम जब दुनियां नए साल के इंतेजार में अपने अपने कार्यक्रम तय कर रही थी तब उत्तर प्रदेश की राजनीति एक ऐतिहासिक मोड़ ले रही थी। ऐसा लग रहा था कि महाभारत की कथा उलटी दिखाई जा रही है जहाँ धृतराष्ट्र पुत्र मोह में नहीं पड़ता, बल्कि उसे दंड देता है।
पुरे घटना क्रम में सत्य की राह पर कौन है इस सवाल में बहुत लोग उलझे हैं और इतने उलझे हैं कि खुल कर किसी के पक्ष में अपनी राय नहीं दे रहे हैं। लेकिन मुझे यह कहते हुए कोई हिचकिचाहट नहीं हो रही कि जहाँ से मैं देख रहा हूं वहाँ से अखिलेश ज्यादा सही हैं। इसके कई कारण हैं-
1. अखिलेश के बिना सहमति के कौमी एकता दल का सपा में विलय होना ने चिंगारी का काम किया जो सपा कुनबे में जा गिरी। अखिलेश एक साफ छवि वाले सेक्युलर मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पहचान बनाने में लगे थे और काफी हद तक सफल भी रहे , लेकिन कौमी एकता दल के मुख़्तार अंसारी डॉन हैं। इसलिए अखिलेश इसके पक्ष में नहीं थे।
2.सितंबर के महीने से ही चाचा शिवपाल और अखिलेश के बीच खाई गहरी होती गयी, इस रस्साकशी में जब पिता मुलायम ने बेटे की जगह भाई का साथ दिया तो बात और ज्यादा बिगड़ गयी। अक्टूबर महीने में सपा के बैठक में अखिलेश के हाथों माइक छिनने की घटना और मुख्यमंत्री झूठ बोल रहे हैं का नारा लगाना रही सही कसर भी पूरी कर चुका था, लोगों ने इस कलह को सरेआम देखा। जो एक मुख्यमंत्री के लिए अपमान जनक था।
3.मुख्यमंत्री किसी के हाथ की कठपुतली बनकर नहीं रहना चाहते थे। अखिलेश ने इन दिनों में अपनी एक पहचान बनाई थी जिसे वो सबके सामने लाना चाहते थे। लेकिन उनके हाथ कभी पिता रोक देते तो कभी चाचा। मुझे लगता है एक मुख्यमंत्री के अपने कुछ अधिकार और स्वाभिमान होते हैं। अपने जब अखिलेश पर भरोसा दिखाया तो भरोसा बनाये रखिये। अखिलेश टीपू से सुल्तान बनना चाहते हैं और मुलायम शख्त होते जा रहे हैं। अगर दागियों को मंत्रिमंडल से हटा ही दिया तो अखिलेश पर दबाव बनाकर दुबारा नियुक्ति करवाने की क्या आवश्यकता थी। सभी जानते है गायत्री प्रसाद की सच्चाई क्या है।
4. यादव परिवार की छोटी बहू अपर्णा यादव का भी पुरे घटनाक्रम में अहम् योगदान माना जा रहा है। माना यह भी जा रहा है कि मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी यानि सीएम अखिलेश की सौतेली माँ ने मुलायम सिंह को अखिलेश के प्रति भड़काया है। अखिलेश के सौतेले भाई खुद तो राजनीति में सक्रिय नहीं है लेकिन उनकी पत्नी की राजनीतिक महत्वकांक्षाएं चरम पर है।अपर्णा शिवपाल के खेमे की मानी जाती हैं। प्रफनमंत्री मोदी के साथ सेल्फी लेने के समय भी खूब चर्चा में थी, आये दिन खुलकर मोदी जी की तारीफ करती सुनी और पढ़ी जाती हैं। अपर्णा खुद को अखिलेश की जगह उत्तर प्रदेश के युवा चेहरे के रूप में पहचान दिलाना चाहती हैं। उनका आरोप है कि अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव को सांसद बनने में उतनी म्हणत नहीं करनी पड़ी जितनी की अपर्णा को अपनी पहचान बनाने में करनी पड़ रही है।
इन परिस्थितियों में अखिलेश के साथ अच्छा यह हुआ की वो जैसा चाहते थे मुलायम सिंह ने वैसा ही किया। प्रकाश झा की फिल्म राजनीति देखिये काफी कुछ वैसा ही चल रहा है।
लोकतंत्र पर परिवारवाद के हावी होने का दुष्परिणाम भी इसे कह सकते हैं। मेरी समझ से परिवार के एक से अधिक सदस्य को राजनीति में सक्रियता नहीं दिखानी चाहिए।
आप सब इसके गवाह हैं कि सियासत के सामने परिवार के , खून के रिश्ते भी कुछ नहीं है। सियासती कुर्सी के लिए बाप और बेटे के बीच जंग चल रही है। सत्ता का लोभ एक परिवार के टुकड़े कर रहा है। हम मीडिया वालों को ब्रेकिंग न्यूज़ मिल रही है।
पुरे घटना क्रम में सत्य की राह पर कौन है इस सवाल में बहुत लोग उलझे हैं और इतने उलझे हैं कि खुल कर किसी के पक्ष में अपनी राय नहीं दे रहे हैं। लेकिन मुझे यह कहते हुए कोई हिचकिचाहट नहीं हो रही कि जहाँ से मैं देख रहा हूं वहाँ से अखिलेश ज्यादा सही हैं। इसके कई कारण हैं-
1. अखिलेश के बिना सहमति के कौमी एकता दल का सपा में विलय होना ने चिंगारी का काम किया जो सपा कुनबे में जा गिरी। अखिलेश एक साफ छवि वाले सेक्युलर मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पहचान बनाने में लगे थे और काफी हद तक सफल भी रहे , लेकिन कौमी एकता दल के मुख़्तार अंसारी डॉन हैं। इसलिए अखिलेश इसके पक्ष में नहीं थे।
2.सितंबर के महीने से ही चाचा शिवपाल और अखिलेश के बीच खाई गहरी होती गयी, इस रस्साकशी में जब पिता मुलायम ने बेटे की जगह भाई का साथ दिया तो बात और ज्यादा बिगड़ गयी। अक्टूबर महीने में सपा के बैठक में अखिलेश के हाथों माइक छिनने की घटना और मुख्यमंत्री झूठ बोल रहे हैं का नारा लगाना रही सही कसर भी पूरी कर चुका था, लोगों ने इस कलह को सरेआम देखा। जो एक मुख्यमंत्री के लिए अपमान जनक था।
3.मुख्यमंत्री किसी के हाथ की कठपुतली बनकर नहीं रहना चाहते थे। अखिलेश ने इन दिनों में अपनी एक पहचान बनाई थी जिसे वो सबके सामने लाना चाहते थे। लेकिन उनके हाथ कभी पिता रोक देते तो कभी चाचा। मुझे लगता है एक मुख्यमंत्री के अपने कुछ अधिकार और स्वाभिमान होते हैं। अपने जब अखिलेश पर भरोसा दिखाया तो भरोसा बनाये रखिये। अखिलेश टीपू से सुल्तान बनना चाहते हैं और मुलायम शख्त होते जा रहे हैं। अगर दागियों को मंत्रिमंडल से हटा ही दिया तो अखिलेश पर दबाव बनाकर दुबारा नियुक्ति करवाने की क्या आवश्यकता थी। सभी जानते है गायत्री प्रसाद की सच्चाई क्या है।
4. यादव परिवार की छोटी बहू अपर्णा यादव का भी पुरे घटनाक्रम में अहम् योगदान माना जा रहा है। माना यह भी जा रहा है कि मुलायम सिंह यादव की दूसरी पत्नी यानि सीएम अखिलेश की सौतेली माँ ने मुलायम सिंह को अखिलेश के प्रति भड़काया है। अखिलेश के सौतेले भाई खुद तो राजनीति में सक्रिय नहीं है लेकिन उनकी पत्नी की राजनीतिक महत्वकांक्षाएं चरम पर है।अपर्णा शिवपाल के खेमे की मानी जाती हैं। प्रफनमंत्री मोदी के साथ सेल्फी लेने के समय भी खूब चर्चा में थी, आये दिन खुलकर मोदी जी की तारीफ करती सुनी और पढ़ी जाती हैं। अपर्णा खुद को अखिलेश की जगह उत्तर प्रदेश के युवा चेहरे के रूप में पहचान दिलाना चाहती हैं। उनका आरोप है कि अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव को सांसद बनने में उतनी म्हणत नहीं करनी पड़ी जितनी की अपर्णा को अपनी पहचान बनाने में करनी पड़ रही है।
इन परिस्थितियों में अखिलेश के साथ अच्छा यह हुआ की वो जैसा चाहते थे मुलायम सिंह ने वैसा ही किया। प्रकाश झा की फिल्म राजनीति देखिये काफी कुछ वैसा ही चल रहा है।
लोकतंत्र पर परिवारवाद के हावी होने का दुष्परिणाम भी इसे कह सकते हैं। मेरी समझ से परिवार के एक से अधिक सदस्य को राजनीति में सक्रियता नहीं दिखानी चाहिए।
आप सब इसके गवाह हैं कि सियासत के सामने परिवार के , खून के रिश्ते भी कुछ नहीं है। सियासती कुर्सी के लिए बाप और बेटे के बीच जंग चल रही है। सत्ता का लोभ एक परिवार के टुकड़े कर रहा है। हम मीडिया वालों को ब्रेकिंग न्यूज़ मिल रही है।
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