एक चेहरे पर कितने नकाब
तुम हर नकाब उतार क्यों नहीं लेती?
सुना है पक्की हो दस्तावेजों की,
कभी अपनी जुल्मों का हिसाब क्यों नहीं लेती?
एक अरसा हुआ तड़पते हुए,
ये बताओ, मेरी जान क्यों नहीं लेती?
ऐसा-वैसा, ये-वो, अगर-मगर कहती हो...
फिर बेवफाई का इल्जाम क्यों नहीं लेती?
हर भंवरे का ठीकाना जैसे गुलाब,
कभी किसी को इंकार नहीं करती।
अच्छा सुनो तुम बेमुरव्वत हो
ये बात सीधी तरह मान क्यों नहीं लेती?
कई बार ख्वबों में पाया है तुम्हें
तुम भी थोड़ा सो क्यों नहीं लेती...
मुझसे बिछड़कर शर्मिंदा हो....
तो अब थोड़ा रो क्यों नहीं लेती?
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