शनिवार, 3 जुलाई 2021

प्रचंड बहुमत से कुछ नहीं होता संगठन में एकता होनी चाहिए...

 


उत्तराखंड में जब 2017 में हुए विधनासभा चुनाव के परिणाम आए तो किसी ने शायद ही सोचा हो कि राज्य में 5 साल का कार्यकाल पूरा होते-होते 3 मुख्यमंत्रियों को देखना पड़ेगा.  सोचते भी कैसे बीजेपी ने प्रचंड जीत जो हासिल की थी 70 में से 57 सीटें. इस शानदार जीत के बाद भी बीजेपी राज्य में 2 बार हार चुकी है. यदि मुख्यमंत्री के जीवीत रहते या बिना किसी बड़ी घटना के एक बार नहीं 2-2 बार मुख्यमंत्री बदलने की नौबत आ जाए तो इसे भी एक तरह का हार कहेंगे. 

बीजेपी कुछ राज्यों में चुनाव में जाने से पहले मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बताती. उनका तर्क है कि चुनाव के बाद सभी मिलकर एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अपना नेता चुनते हैं. जब लोकसभा के चुनाव होते हैं तो रणनीति अलग होती है.  कॉमन फैक्टर हैं मोदी जी और विकास का मॉडल, राज्य व केंद्र के चुनावों में बढ़चढ़कर विकास की बातें होती हैं और मोदी जी के नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं.  तर्क यह है कि उनके पास मोदी जैसे चक्रवर्ती नेता हैं तो वे उनका इस्तेमाल करते हैं. बात भी सही है लेकिन जनता ने  छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड, और पश्चिमबंगाल में विकास और मोदी जी दोनों को नकार दिया. 

मुख्यमंत्री का चेहरा बताकर चुनाव में जाना आपकी शक्ति को प्रदर्शित करता है और बिना नेता के नाम के घोषणा के चुनाव में जाना आपकी उलझन को उजागर करता है.  यदि आपका संगठन मजबूत है तो आपको एक मजबूत नेता की आवश्यकता पड़ती है. ऐसे नेता की जिनकी संगठन में ऐसी पकड़ हो जो चुनाव के बाद के विद्रोह, लालसा और वैमनस्यता की स्थिती पैदा ही न होने दे.  

उदाहरण के लिए प्रचंड बहुमत के बाद विधायक दल के नेता बने त्रिवेंद्र सिंह रावत को कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया. क्या सचमुच विधायकों ने उन्हें चुना था या आलाकमान ने उन्हें उनपर थोप दिया था. 

नाराज़गी तो उत्तरप्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ से भी थी विधायकों की. उन्हें बदलने का साहस क्यों नहीं हुआ? क्योंकि योगी एक प्रभावशाली व्यक्तित्व हैं?

 उत्तराखंड में 57 विधायक जीतकर आए और उनमें से एक भी मुख्यमंत्री बनने के लायक नहीं है? दूसरी तरफ यदि बीजेपी हाईकमान ने एक व्यक्ति को सीएम बनाया तो बाकी के लोग इससे असहमत क्यों हो गए? बीजेपी तो अफने आप को संगठनात्मक और लोकतांत्रिक मुल्यों पर चलने वाली पार्टी मानती है.  क्यों पार्टी कुछ नेताओं के विद्रोह के डर से नेतृत्व तक को बदलने पर मजबूर हो जाती है? पार्टी के खिलाफ विद्रोही आचरण करने वालों को क्यों नहीं दंडित किया जाता है?

स्थिर सरकार की बात करने वाली पार्टी पूर्ण बहुमत के बाद भी राज्य नहीं संभाल पा रही है.  

अब लोग संवैधानिक संकट का तर्क दे रहे हैं.  कैसा संकट? 

रावत किसी भी सदन के नेता नहीं हैं.तो जब सीएम बन रहे थे उस वक्त भी तो नहीं थे.

पौड़ी से सांसद रावत इसी साल 10 मार्च को मुख्यमंत्री बने थे. रावत को अपने पद पर बने रहने के लिए 10 सितंबर तक विधानसभा चुनाव जीतना था. राज्य में विधानसभा की दो सीटें गंगोत्री और हल्द्वानी खाली हैं, जहाँ उपचुनाव होना है. कहा जा रहा था कि रावत गढ़वाल क्षेत्र में स्थित गंगोत्री सीट से उपचुनाव लड़ सकते थे. लेकिन अगले साल फरवरी-मार्च में ही विधानसभा चुनाव को देखते हुए माना जा रहा है कि निर्वाचन आयोग उपचुनाव अलग से नहीं कराएगा. 

अच्छा तो होता कि बीजेपी का स्थानीय संगठन और खुद तीरथ सिंह रावत चुनाव की तैयारी करते और इस बीच चुनाव आयोग की तरफ से कहा जाता कि अगले साल फरवरी-मार्च में ही विधानसभा चुनाव को देखते हुए  निर्वाचन आयोग उपचुनाव अलग से नहीं कराने जा रही है. संवैधानिक संकट उत्पन्न हो रहा है इसलिए वर्तमान मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना होगा. 

नए मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा विधायकों की बैठक करेगी, जिसमें उनका नेता चुना जाएगा. उम्मीद है इस बार नेता सर्वसम्मति से चुना जाए.  तीरथ सिंह रावत की जगह लेने के लिए कई नाम चर्चा में हैं. इस सूची में सबसे पहला नाम उच्च शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत का है. त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के बाद भी धन सिंह रावत का नाम उछला था, लेकिन कुर्सी तीरथ सिंह रावत को दी गई थी. श्रीनगर सीट से विधायक धन सिंह आरएसएस कैडर हैं और उत्‍तराखंड बीजेपी में संगठन मंत्री भी रह चुके हैं. 

वर्तमान में बीजेपी उत्तराखंड को देखकर कहा जा सकता है कि "प्रचंड बहुमत से कुछ नहीं होता संगठन में एकता होनी चाहिए... "

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...