मैं हिंसक हूँ, मैं क्रूर हूँ,
एक झूठे मद में चूर हूँ।
अवगुणों से भरा हुआ,
आदमी मैं गिरा हुआ।
न मैं रावण न मैं राम,
कलयुग का नकली परशुराम।
कायर और कमजोर बड़ा हूँ,
पाप का भरता घड़ा हूँ।
फल की इच्छा लेती आकार,
अहंकार मेरा अलंकार।
न रिश्तों का ध्यान मुझे
न मर्यादाओ का ज्ञान मुझे
बंधु से न स्नेह मुझे न बांधव मन को भाते हैं
स्वार्थ से है दोस्ती, स्वार्थ से प्रीत निभाते हैं।
मैं तुच्छ मलेच्छ व्यभिचारी हूँ,
मोह माया के जाल में, घनघोर संसारी हूँ।
न नित्यकर्म ही करता हूं,
न धर्म कर्म ही करता हूँ।
कुल के संस्कारों का
न ज्ञान है वेद-पुराणों का,
अंजुरी से जल का अर्पण,
भूल गया पितरों का तर्पण।
पितामही का स्नेह और पितामह के आशिर्वचन,
दूर हमसे होता रहा सरल निःस्वार्थ सा बचपन।
स्वार्थ से है दोस्ती, स्वार्थ से प्रीत निभाते हैं।
मैं तुच्छ मलेच्छ व्यभिचारी हूँ,
मोह माया के जाल में, घनघोर संसारी हूँ।
न नित्यकर्म ही करता हूं,
न धर्म कर्म ही करता हूँ।
कुल के संस्कारों का
न ज्ञान है वेद-पुराणों का,
अंजुरी से जल का अर्पण,
भूल गया पितरों का तर्पण।
पितामही का स्नेह और पितामह के आशिर्वचन,
दूर हमसे होता रहा सरल निःस्वार्थ सा बचपन।
माता को न सुख है घर में पिता को न चैन है,
भीगे भीगे रहते हरदम वो जो चारों नैन हैं।
भीगे भीगे रहते हरदम वो जो चारों नैन हैं।
लाचार बुढापा आने को है,
यौवन एक दिन जाने को है।
मृत्यु से हो कर भयभीत,
कर रहा जीवन व्यतीत।
यौवन एक दिन जाने को है।
मृत्यु से हो कर भयभीत,
कर रहा जीवन व्यतीत।
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