रविवार, 22 जुलाई 2018

रेप जैसी घटनाओं पर सरकार को दोष देना कितना उचित है?

 
 एक स्वीस squash खिलाड़ी के माता पिता ने उसे भारत आने से मना कर दिया क्योंकि भारत महिलाओं से हिंसा के मामले में अपनी छवि खराब कर चुका है। हिंदुस्तान में बढ़ती रेप की घटनाओं से डरे माता पिता ने अपनी बच्ची को इस देश में भेजने से मना कर दिया... यह हर एक भारतीय के लिए शर्म की बात है। उससे भी अधिक शर्म की बात यह है कि लोग इसे मोदी सरकार को कोसने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। अपनी जमीर में झांकने के बजाय किसी भी सरकार को रेप और दूसरे समाजिक कुरीतियों के लिए  दोष देना अनुचित है। याद रखिये प्रजातंत्र में देश सरकार से नहीं आपसे चलता है। याद रखिये समाज के वहशी बनने के पीछे सरकार का नहीं समाज में रहने वाले लोगों का दोष है। यह भी याद रखिये रेप जैसा घिनौना कृत्य करने मोदी जी या राहुल जी नहीं आते आप ही के समाज के आप के लोग होते हैं। यह भी याद रहे कि रेप के 90 फीसद मामलों में रेप करने वाले पीड़ित के जानने वाले होते हैं। याद रखिये बलात्कार जैसी घटनायें राजनीतिक समस्या नहीं बल्कि मर्दों के भीतर की बीमार मानसिकता है। जिसका इलाज आपको और हमें ही करना होगा बीजेपी और कांग्रेस को नहीं.....इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार हमारी सुरक्षा को लेकर जवाबदेह है। लेकिन रेप जैसी जहनी बीमारी का इलाज सरकार कैसे करे? इसका इलाज सरकारों के पास नहीं आपके और हमारे पास है।

 अब अपने अनुभव की कुछ घटनायें आपसे साझा करता हूं। साल 2007-08 की बात होगी।  बिहार के एक वीडियो टॉकिज में पहली बार अपने स्कूली मित्रों के साथ फिल्म देखने पहुंचा। फिल्म 90 के दशक की थी। पर्दे पर जैसे ही  शक्ति कपूर रूपी खलनायक चरित्र ने अनीता राज रूपी चरित्र का बलात्कार करना शुरू किया, तो हॉल में सीटियां बजनी शुरू हो गईं। तभी अचानक बिजली चली गई। अब जब तक जेनरेटर चलाया जाता और पर्दे पर फिर से रोशनी आती तब तक दर्शकों ने हंगामा मचाना शुरू कर दिया और जब बिजली आई तो कहा गया कि उस सीन को दोबारा चलाया जाए। बड़ी संख्या में उस दौर के पुरुष दर्शक बलात्कार के दृश्य बहुत पसंद करते थे। हाट-बाज़ार में यहां-वहां लगे पोस्टरों के कोनों में जान-बूझकर ऐसे दृश्य अवश्य लगाए जाते थे, जिससे लोगों को यह पता चल सके कि इस फिल्म में बलात्कार का दृश्य भी है। सिनेमाघर के ठीक बाहर के पान की दुकानों पर ये शिकायत आम रहती थी कि बलात्कार का सीन तो दिखाया गया, लेकिन कपड़े ठीक से नहीं फाड़े, कुछ ठीक से नहीं दिखाया, उतना ‘मज़ा’ नहीं आया। अब यह कहना मुश्किल है कि उस दौर के फिल्मकारों ने लोगों की इस मानसिकता को अच्छी तरह समझकर इस ट्रेंड को भुनाना शुरू किया था, या कि फिल्मकारों द्वारा इस रूप में परोसे गए दृश्यों की वजह से लोगों की रुचि और मानसिकता इस प्रकार की बन गई थी। कुछ समय पहले तक शहरों में एक-दो ऐसे विशेष सिनेमाघर होते थे, जिनमें ऐसी फिल्में चलाई जाती थी जिनमें बलात्कार इत्यादि के कई दृश्य फिल्माए गए होते थे। प्रचलित शब्दावली में  बी या सी ग्रेड की फिल्में दिखाई जाती थीं। इन सीनेाघरों के बाहर शो के इंतेजार में खड़े दर्शकों में सबसे ज्यादा नौजवान और किशोर हुआ करते थे। घोषित रूप से मॉर्निंग शो में चलने वाली एडल्ट फिल्मों के वीभत्स और अश्लील पोस्टर दिल्ली के कनॉट प्लेस से लेकर पटना जैसी राजधानियों के लगभग हर सार्वजनिक स्थल पर सटे हुए हम सबने देखे ही होंगे। इन घटनाओं का वर्णन मैं फिल्म इंडस्ट्री को कोसने या समाज के किसी ख़ास वर्ग को कोसने के लिए नहीं कर रहा हूँ क्योंकि आज हम उस दौर से आगे बढ़ गए हैं।  इंटरनेट क्रांति और स्मार्ट फोन ने पोर्न को सबके पास आसानी से पहुंचा दिया है। कल तक इसका उपयोग समाज का एक उच्च वर्ग या मध्यम वर्ग ही करता था लेकिन आज यह हर वर्ग के पास सरतलता से उपलब्ध है।तकनीकें और माध्यम बदलते रहते हैं, लेकिन हमारी प्रवृत्तियां कायम रहती हैं या स्वयं को नए माध्यमों के अनुरूप ढाल लेती हैं।

इसे ऐसे समझें कि कभी फुटपाथ पर बिकने वाले अश्लील साहित्य से लेकर टीवी-वीसीआर-वीसीडी और सिनेमा के रास्ते आज हम यू-ट्यूब तक पहुंच चुके हैं। लेकिन एक समाज के रूप में हमारी यौन-प्रवृत्तियां बद से बदतर होती गई हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम यू-ट्यूब पर अंग्रेजी में ‘रेप सीन’ लिखकर सर्च करें तो 21 लाख परिणाम आते हैं। इसका मतलब है कि लोग आज भी फिल्मों के उस विशेष हिस्से को बार-बार देखना-दिखाना चाहते हैं जिनमें बलात्कार को फिल्माया गया होता है। और यह भी कि बलात्कार के ऐसे दृश्य हमारे मनोरंजन और  हमारी काल्पनिक यौन-इच्छाओं को संतुष्ट करने का साधन बनते हैं। 

 अब आपके भीतर के इन विकारों को कोई सरकार भला कैसे रोके। दुनिया की कोई भी सरकार पोर्न, साहित्य और सिनेमा को बैन करने में न तो पूरी तरह सफल हो सकती है, और न ही बैन या सेंसरशिप इसका वास्तविक समाधान है। यह एक सभ्यतामूलक चुनौती है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी जीवन में मानवीय मूल्यों के समावेश का उपक्रम है।बलात्कार जैसी हिंसा ज्यादातर हमारी यौनिकता से प्रेरित है,  इसे वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर समझने-समझाने की जरूरत है। यौन इच्छा, यौन संपर्क और प्रजनन की प्रक्रिया को जब वैज्ञानिक तरीके से समझने का प्रयास होगा, तभी उसकी रहस्यात्मकता, कौतूहलता और उससे जुड़ी आक्रामकता का शमन हो सकेगा। इसे जितना गुप्त रखने की कोशिश होगी वह और हिंसक होता जायेगा बढ़ता जायेगा। 

1 टिप्पणी:

  1. https://www.bbc.com/hindi/sport-44916712
    ये ख़बर भी देखें...
    क्या ये अख़बार और ख़बर शेयर करने वाले लोग देश से माफ़ी मांगेंगे । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि को जो नुक़सान हुआ है उसका ज़िम्मेदार कौन?
    विश्व चैंपियनशिप में भाग नहीं लेने के कारणों की पुष्टि करने के लिए बीबीसी ने एंबर और उनके पिता इगोर से बात की, जिसमें उन्होंने भारतीय मीडिया के दावों से पूरी तरह इनकार कर दिया.

    एंबर के पिता इगोर ने कहा, "भारतीय मीडिया और सोशल मीडिया में एंबर एलिन्क्स के बारे में जो ख़बर आई है, वो मेरी बेटी के भविष्य के लिए ख़तरनाक है और हम इसके बारे में बहुत चिंतित हैं."

    उन्होंने कहा, "कुछ मीडिया में अफवाहें फैली थीं कि एंबर चेन्नई में हो रहे विश्व जूनियर स्क्वैश चैंपियनशिप में सुरक्षा कारणों से भाग नहीं ले रहीं. यह सच नहीं है. माता-पिता के तौर पर हमने पिछले साल सितंबर में ही दो कारणों से यह फ़ैसला कर लिया था कि इस बार उसे नहीं भेजेंगे

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...