गुरुवार, 16 अगस्त 2018

काल के कपाल का लिखा टल तो गया लेकिन मिट नहीं सका

वाजपेयी जी की  कविताएं आज उन्हें याद करने और श्रद्धांजली देने के काम आ रहे हैं। उनकी कविताओं को आज गूगल की मदद से ढ़ूढ़ कर निकाला जा रहा है। लाखों लोग और मीडिया कर्मी इसके लिए गूगल के आभारी होंगे। मैं भी अपना आभार व्यक्त करता हूँ। 


जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।
बदले हैं अर्थ
शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।
सपनों में मीत
बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।

 वाजपेयी जी की जिंदगी की सांझ भले ढल गई हो लेकिन उनके आदर्श उनके शब्द सदियों तक वक्त के आसमान में सूरज की तरह चमकते रहेंगे और लोग उसके तेज से  प्रकाशित होते रहेंगे।
जीवन में सबसे कठिन काम है अपने उपर लिखना, लेकिन अटल जी की ज्यादातर कविताओं में उनके भीतर का वो संवाद है जो वो शायद दुनियां को सीधे न कहकर कविताओं के माध्यम से कहते थे।

मोड़ पर

मुझे दूर का दिखाई देता है,
मैं दीवार पर लिखा पढ़ सकता हूँ,
मगर हाथ की रेखाएं नहीं पढ़ पाता।
सीमा के पार भड़कते शोले
मुझे दिखाई देते हैं।
पर पांवों के इर्द-गिर्द फैली गर्म राख
नज़र नहीं आती ।
क्या मैं बूढ़ा हो चला हूँ?
हर पच्चीस दिसम्बर को
जीने की एक नई सीढ़ी चढ़ता हूँ
नए मोड़ पर
औरों से कम
स्वयं से ज्यादा लड़ता हूँ।
मैं भीड़ को चुप करा देता हूँ,
मगर अपने को जवाब नही दे पाता,
मेरा मन मुझे अपनी ही अदालत में खड़ा कर,
जब जिरह करता है,
मेरा हल्फनामा मेरे ही खिलाफ पेश करता है,
तो मैं मुकद्दमा हार जाता हूँ,
अपनी ही नजर में गुनहगार बन जाता हूँ।
तब मुझे कुछ दिखाई नही देता,
न दूर का, न पास का,
मेरी उम्र अचानक दस साल बड़ी हो जाती है,
मैं सचमुच बूढ़ा हो जाता हूँ।  

इसके अलावा मौत से ठन गई कविता उनकी लोकप्रिय कविताओं में शुमार है। हमेशा के लिए खामोश हो चुके अटल अगर अभिव्यक्त कर पाते तो शायद एक कविता के माध्यम से खुद ही सबको ढांढस बंधाने लगते। साल 1988 में जब वाजपेयी किडनी का इलाज कराने अमेरिका गए थे तब धर्मवीर भारती को लिखे एक खत में उन्होंने मौत की आंखों में देखकर उसे हराने के जज्बे को कविता के रूप में सजाया था। आज एक बार फिर याद आ रही यह कविता थी- 

'मौत से ठन गई'

ठन गई! 
मौत से ठन गई! 
जूझने का मेरा इरादा न था, 
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, 
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, 
यूं लगा जिंदगी से बड़ी हो गई। 
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, 
जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं। 
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, 
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं? 
तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ, 
सामने वार कर फिर मुझे आजमा। 
मौत से बेखबर, जिंदगी का सफ़र, 
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर। 
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, 
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं। 
प्यार इतना परायों से मुझको मिला, 
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला। 
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए, 
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए। 
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, 
नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है। 
पार पाने का क़ायम मगर हौसला, 
देख तेवर तूफ़ां का, तेवरी तन गई। 
मौत से ठन गई। 

धर्मवीर को लिखे खत में अटल ने बताया था कि डॉक्टरों ने उन्हें सर्जरी की सलाह दी है। उसके बाद से वह सो नहीं पा रहे थे। उनके मन में चल रही उथल-पुथल ने इस कविता को जन्म दिया था। दिलचस्प बात यह भी है कि अमेरिका में अटल को इलाज के लिए भेजने के पीछे एक बड़ा योगदान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का था। राजीव ने संयुक्त राष्ट्र को भेजे डेलिगेशन में अटल का नाम शामिल किया था ताकि इसी बहाने अटल अपना इलाज करा सकें। अटल हमेशा इस बात के लिए राजीव गांधी की महानता की सराहना करते रहे, और इस तरह काल के कपाल पर लिखा टल गया।

अबकी बार वाजपेयी जी की मौत से ऐसी ठनी कि वे काल के कपाल का लिखा नहीं मिटा सके। 16 अगस्त 2018 को अटल बिहारी वाजपेयी हम सब को छोड़कर सदा के लिए देवलोक प्रस्थान कर गए। काल के कपाल पर लिखा टल तो गया लेकिन मिट न सका।

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...