मंगलवार, 7 अगस्त 2018

तमिल सियासत का सबसे पुराना वृक्ष गिरा

चुनावों में कभी हार नहीं मानने वाले डीएमके चीफ एम करुणानिधि आज जिंदगी की जंग हार गए. 94 साल की उम्र में उन्होंने कावेरी  अस्पताल में आखिरी सांस ली. देश का एक दमदार सियासी लीडर हमेशा के लिए तारीख के पन्नों में दफ्न हो गया. करुणानिधि देश में शायद इकलौते ऐसे लीडर थे जिन्होंने जवाहर लाल नेहरू से लेकर प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी तक का दौर देखा.  अभी हाल ही में उन्होंने अपना 94वां जन्मदिन मनाया था. करीब 50 सालों से द्रविड़ मुनेत्र कडगम (DMK) की कमान संभाल रहे करुणानिधि पहली बार उस वक्त एमएलए बने जब पंडित जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे. तब से लेकर आज तक वो कभी तमिलनाडु में चुनाव नहीं हारे और करीब 12 बार जीत कर विधानसभा पहुंचे.
1957 में करुणानिधि ने अपनी पार्टी के लिए जमकर पसीना बहाया और पहली बार असेंबली पहुंचे. 1969 के विधानसभा चुनाव में जीत  कर करुणानिधि पहली बार तमिननाडु के मुख्यमंत्री बने थे. तब से लेकर 1976 तक करुणानिधि राज्य के सीएम रहे. इसके बाद तमिलनाडु की सियासत में दक्षिण के फिल्मों के मशहूर अदाकार और DMK से अलग होकर AIADMK बनाने वाले MGR(एमजी रामचंद्रन) को पहली बार राज्य में सरकार बनाने का मौका मिला और MGR सीएम बने. करुणानिधि को सीएम की कुर्सी को दोबारा हासिल करने के लिए साल 1989 के चुनाव तक का इंतेजार करना पड़ा था. लेकिन वे ज्यादा दिन तक सीएम नहीं रह सके थे. क्योंकि एमजीआर के रास्ते पर चलते हुए जय ललिता रियासत की सियासत में अपना अलग मकाम बना रही थी. वही हुआ जिसका डर था. साल 1991 में फिर से विधानसभा चुनाव हुए और जयललिता ने तजुर्बेदार करुणानिधि को सत्ता से बेदखल कर दिया. इसके बाद राज्य में कभी DMK की सरकार बनती तो कभी AIADMK की. जयललिता पर करप्शन के चार्जेस और मुकदमों का फायदा एक बार फिर से  करुणानिधि ने उठाया और साल  2006 के चुनाव में शानदार जीत दर्ज की. इस जीत के साथ करुणानिधि ने आखिरी बार राज्य की सत्ता संभाली.
 करुणानिधि ने सिर्फ 14 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ दी थी और राजनीति में उतर आये थे. साल 1937 में हिंदी के विरोध में आवाज बुलंद करते हुए करुणानिधि  हिंदी हटाओ आंदोलन की तख्ती लेकर लोगो के बीच में पहुंच गए और तमिल भाषा को अपना हथियार बनाते हुए स्कूलों में हिन्दी को अनिवार्य किए जाने का जमकर विरोध किया. उन्होंने हिन्दी को लेकर अखबारों में आर्टिकल लिखा और नाटक के जरिए भी हिंदी का जमकर विरोध किया. करुणानिधि की तमिल भाषा पर बेहतरीन पकड़ थी. जिसे देखते हुए उस वक्त के राजनेता पेरियार और अन्ना दुराई ने उन्हें कुदियारासु का एडिटर बना दिया था. जिसके बाद राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई और वो मंझे हुए राजनेता बन गए.  कुछ समय के बाद पेरियार और अन्नादुराई के बीच मतभेद हो गया.  और दोनों अलग हो गये, जिसमें करुणानिधि ने अन्नादुराई का हाथ थामा और उनके साथ जुड़ गये....  इसके बाद उन्होंने कभी वापस मुड़कर नहीं देखा.सियासत को अपनी जिंदगी बना लेने वाले  करुणानिधि की बराबरी कोई नहीं कर सकता. एम करुणानिधि अपनी पत्नी से भी ज्यादा अहमियत पार्टी को देते थे शायद यही वजह है कि उनकी पत्नी जब बिस्तर पर आखिरी सांसें गिन रही थी तो उसवक्त भी करुणानिधि अपना फर्ज नहीं भूले और पार्टी की बैठक में जाकर हिस्सा लिया. करुणानिधि के इस कदम से पार्टी में उनकी हैसियत और बढ़ गई और एक आम कार्यकर्ता से लेकर बड़े नेता तक उन्हें बेहद सम्मान की नजरों से देखने लगे.
11 दिनों से जिंदगी और मौत के बीच जारी जंग में करुणानिधि की जिंदगी मौत से मात खा गई और अब हमारे बीच मुल्क का एक बड़ा नेता नहीं रहा. रह गई तो बस उनकी याद. उनकी सियासत और उनके किस्से. 

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...