किसी भी तरह का हो आंदोलन हमेशा राजनीति से प्रेरित ही होता है. जब किसान राजनेता बनने लगते हैं तो सरकार और आंदोलनकारी किसानों के बीच समझौता तब तक नहीं होता जब तक मीडिया का ठीक ठाक फुटेज न मिल जाये. 12 में से 7 मांगे मान लेने के बाद भी अगर किसान कह रहे हैं कि आंदोलन जारी रहेगा तो समझ जायें कि कही से इनपुट मिल गया. वैसे आंदोलन कारियों को चक्कर आये न आये आंदोलनकारियों का साथ देने आये नेताओं की तबियत बिगड़ने लगती है.
आज के घटनाक्रम पर नज़र डालें तो दिन भर के हंगामे का एक ही सार है. किसानों और दिल्ली पुलिस के बीच झड़प हो गई. अब देखना यह है कि इस झड़प और हुए नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार है. आप कहेंगे कि कैसा नुकसान मैं कहुंगा कि और तो छोड़ दीजिए पुलिस ने जो वाटर कैनन इस्तेमाल किया उसमें पानी की जितनी मात्रा बर्बाद हुई उतने में दिल्ली वाले आराम से होली खेल लेते.
खैर, हंगामे की वजह न किसानों के हाथ में लाठी का होना रहा न पुलिस वालों पर पत्थरबाजी. इस कहानी की पटकथा तब लिखी गई जब किसानों ने अपनी यात्रा शुरु की थी. किसानों की ये पदयात्रा 23 सितंबर को हरिद्वार से शुरू हुई थी, जो 2 अक्टूबर को पूर्व प्रधानमंत्री और किसान नेता चौधरी चरण सिंह की स्मृति स्थल 'किसान घाट' पर खत्म होनी थी. इन्हें दिल्ली में प्रवेश करने से रोक दिया गया. साफ है कि जब यात्रा निकाली गई थी उसी समय साफ हो चुका था कि किसान दिल्ली आयेंगे. अगर सरकार की यही मंशा थी कि उन्हें दिल्ली में प्रवेश नहीं देना है तो यात्रा के शुरुआत में ही उन्हें हरिद्वार में ही क्यों नहीं रोक लिया गया? यह बातचीत तभी की जानी थी. इस संघर्ष की नौबत क्यों आयी?
अब किसानों पर आते हैं. किसानों की 12 मांगे हैं. मुझे सबके बारे में नहीं पता इतना पता है कि उनमें से एक मांग कर्जमाफी की भी है. मुझे नहीं लगता कि हर किसान की कर्जमाफी होनी चाहिए. किसानों का कहना है कि सरकार की गलत नीतियों की वजह से किसान कर्जे में हैं. यही नीति कर्ज लेते समय ठीक होती है और चुकाने के समय गलत कैसे हो जाती है समझ के परे है. क्या किसान यही सोचकर कर्ज लेते हैं कि जब चुकाने की बारी आयेगी तो लाठी डंडे लेकर निकल लेंगे आंदोलन करने?
प्राकृतिक तौर पर हुए नुकसान या किसी सरकारी योजना के क्रियान्वयन से होने वाले नुकसान के बदले अगर कर्जमाफी या मुआवजे की मांग होती है तो वह 100 प्रतिशत जायज है, लेकिन अगर कर्ज
माफी के नाम पर ब्लैकमेलिंग होनी शुरु हुई तो किसान किसी और का नहीं स्वयं का अहित करेंगे.
कर्जमाफी उन छोटे किसानों के लिए शुरु की गई योजना है जिन्होंने अपने जीवकोपार्जन के लिए खेती करने की सोची और इशके लिए सरकार से मदद राशि ले कर खेती की. किसी कारण वश पैदावार अच्छी नहीं हुई और उस किसान को घाटा हो गया. ऐसी स्थिती में उस छोटे भूमिहीन किसान को राहत देने के लिए सरकार उसके कर्जों को माफ कर देती है.
कर्जमाफी का इस्तेमाल नेताओं ने वोट के लिए करना शुरु कर दिया और वहीं चूक हो गई. इशका फायदा बड़े किसान उठाने लगे. महाराष्ट्र में भूखे मरने वाले किसान हजारों लीटर दूध यू ही बहा देते हैं. सब्जियां औऱ फल सड़कों पर फेंक देते हैं सिर्फ इसलिए ताकि उनके कर्ज माफ कर दिये जायें और उनका नेतृत्व करते हैं वो किसान जो सामर्थ्यवान हैं जो कई बीघे जमीन पर खेती करते हैं. लाभ से तो भूमिहीन किसान वंचित रह जाते हैं. फायदा नेताओं को और बड़े किसानों को होता है.
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