बुधवार, 12 दिसंबर 2018

अपने ही गढ़ में कैसे हार गई भाजपा?


मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, और राजस्थान में बीजेपी की हार के बाद हर कोई विश्लेशक बना हुआ है. जो नहीं जानते वो भी और जो जानते हैं वो भी जानना चाहते हैं कि आखिर कैसे बीजेपी अपने गढ़ में शिकस्त खा गई. छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश और राजस्थान तीनों बीजेपी का गढ़ माना जाता है. एमपी और छत्तीसगढ में तो 15 सालों से बीजेपी की सरकार थी. फिर ऐसा क्या हुआ कि बीजेपी लोकसभा चुनाव के पहले अपने ही गढ़ में हार गई. क्या मोदी लहर खत्म हो चुका है. जवाब है कौन सा मोदी लहर? कौन सी लहर किस लहर की बात हो रही है? जब आप बीजेपी के वोटर्स को पहचान लेंगे तो आपको खुद इसका जवाब मिल जायेगा. उसके पहले आपको थोड़ा अंक गणित की कसरत करवा देता हूं. आंकड़े गूगल से लिये गए हैं एक आध अंक आगे पीछे हो जायें तो मैनेज कर लीजिएगा.
मध्‍यप्रदेश में भाजपा को कुल 41.3 फीसदी और कांग्रेस को 41.4 फीसदी वोट मिला है. साफ तौर पर दोनों के वोट फीसदी में महज 0.1 फीसदी का अंतर है, जो एक फीसदी का दसवां हिस्‍सा है. जबकि राज्‍य में नोटा के खाते में गए वोटों का फीसदी लगभग 1.5 है, यानी हार के अंतर का 15वां गुना. यानी कुल 4,56,151 मतदाताओं ने नोटा के पक्ष में  वोट दिया है. 
इसी तरह की दिलचस्‍प तस्‍वीर राजस्‍थान की भी है. वहां भाजपा को 38.8 फीसदी और कांग्रेस को 39.2 फीसदी वोट मिला है. दोनों के वोट फीसदी का अंतर महज 0.4 फीसदी है, जबकि अब तक राज्‍य में नोटा के खाते में गए वोटों का प्रतिशत 1.3 है. यानी हार और जीत के अंतर के तीन गुने से भी अधिक लोगों ने नोटा के पक्ष में वोट दिया है. वहां कुल मिलाकर 4,47,133 लोगों ने नोटा के पक्ष में वोट दिया. 
हालांकि सत्ता विरोधी रुझान के कारण छत्‍तीसगढ़ के मामले में तस्‍वीर थोड़ी अलग है. वहां भाजपा को जहां 33 फीसदी वोट मिला, वहीं कांग्रेस के खाते में 43.3 फीसदी वोट गया. लेकिन यहां भी  2.1प्रतिशत यानी 2,01,793 लोगों ने नोटा का बटन दबाया. 
तीनों राज्यों को मिला दें तो  लगभग 11 लाख लोगों ने नोटा के पक्ष में वोट किया. नोटा जिक्र बार बार इसलिए भी कर रहा हूं क्योंकि बीच में सोशल मीडिया पर नोटा बहुत प्रसिद्ध हुआ था. सवर्णों ने एक होकर बीजेपी के खिलाफ नोटा का बटन दबाने का संकल्प लिया था और नतीजों से साफ है कि इस मुहिम का कितना व्यापक असर पड़ा है. संक्षेप में ये भी बता देता हूं कि नोटा मुहिम दरअसल केंद्र सरकार का बिल लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के खिलाफ चलाया गया था. ये बिल एससी एसटी एक्ट में किये गए बदलावों के खिलाफ लाया गया था. 
इन सब के बीच राममंदिर की वकालत करने वालों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. मंदिर बनवाने के लिए भी देश में कई दशकों से मुहिम चालाया जा रहा है. बीजेपी खुद राम मंदिर के नाम पर वोट मांगती रही है. केंद्र में बीजेपी की सरकार को 4 साल से ज्यादा का समय  बीत चुका है, उत्तरप्रदेश में भी बीजेपी की सरकार है योगी मुख्यमंत्री हैं, राम मंदिर बनवाने की इच्छा रखने वाले समझते हैं कि इससे ज्यादा अनुकूल वातावरण अब कभी तैयार नहीं हो सकता. लेकिन फिर भी लगातार देरी की वजह से लोगों का संयम जवाब देने लगा है और लोग नोटा दबाने को विवश हुए. 
आरक्षण  को लेकर लगातार  एक वर्ग के तुष्टीकरण ने भी बीजेपी के हार्ड कोर वोटर्स पर चोट किया. ऐसे में उन्होंने अपना रोष प्रकट करने के लिए बीजेपी को वोट नहीं किया. बीजेपी जिनके तुष्टीकरण के लिए अपने पारंपरिक वोटर्स को नाराज करती रही उन्होंने भी बीजेपी का साथ नहीं दिया और दिया भी तो संख्या इतनी नहीं जुट पायी कि वो नाराज वोटर्स से होने वाली क्षति की पूर्ती कर सकें. इसलिए मैंने कल अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मस पर लिखा भी था, आधी छोड़ सारी को जावे आधी रहे न सारी  पावे. 
तो अब सहज ही समझा जा सकता है कि जिसे लोग मोदी लहर समझने की भूल कर रहे हैं उसे वो दरअसल हिंदुत्व की लहर है, जिसने मोदी को हिंदु हृदय सम्राट समझा और उसके साथ हो लिये, जैसे ही उन्हें लगेगा कि मोदी जी भी राम के नाम पर सिर्फ सियासत कर रहे हैं तो वे किसी और नये लीडर का रुख करेंगे. 
लखनऊ में लगे ये होर्डिंग भी कुछ ऐसा ही इशारा कर रहीं है.
इसपर एक तरफ सीएम योगी  की तस्वीर है और दूसरी तरफ पीएम मोदी की तस्वीर है,  मोदी की तस्वीर की नीचे लिखा है- जुमलेबाजी का नाम मोदी और योगी की तस्वीर की नीचे लिखा है- हिंदुत्व का ब्रांड योगी.
ऐसा नहीं है कि बीजेपी के हार के और भी कारण नहीं हैं बड़े- बड़े पत्रकार अपने-अपने तरीके से इन चुनावों का विश्लेषण कर रहे हैं,  ये मेरा विश्लेषण है. मानना न मानना आपके हाथ में है. धन्यवाद

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...