मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में नोटा की जबर्दस्त सफलता के बाद बीजेपी अपने परंपरागत वोटरों यानी सवर्णों को साधने में लग गई है. असेंबली चुनावों में बीजेपी ने सवर्णों की नाराजगी को हल्के में लेकर जो भूल की थी अब उसे सुधारने की दिशा में उन्होंने काम करना शुरु कर दिया है. मोदी सरकार ने नाराज सवर्णों को मनाने के लिए सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण देने का ऐलान किया है. हालांकि आरक्षण आर्थिक आधार पर मिलेगा. अर्थात आरक्षण का लाभ आर्थिक रुप से कमजोर सवर्णों के ही मिलेगा. अब इस फैसले को आप अपने विवेक से सही या गलत ठहरा सकते हैं. देश में पिछड़ों और अतिपिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण में जातीय आरक्षण है. अर्थात अमुक जाति के लोग अगर आर्थिक रुप से संपन्न हैं तो बी उन्हें आरक्षण का लाफ मिलता रहेगा. इसी वजह से देश में लंबे समय से आर्थिक आरक्षण की मांग की जा रही है. नरेंद्र मोदी सरकार के इस फैसले को आर्थिक आरक्षण की दिशा में उठा पहला कदम भी माना जा सकता है.
आप मोदी सरकार को इस फैसले का सारा क्रेडिट दें उसके पहले आपको याद दिला दें कि सवर्णों को आरक्षण की संकल्पना मोदी जी की नहीं है. 1991 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला किया था. हालांकि, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया. इसलिए पहले संविधान संसोधन की बात हो रही है.इसके लिए मोदी सरकार संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन पर विचार कर रही है. इसके लिए उसे लोकसभा और राज्यसभा में संशोधन पर मुहर लगवानी होगी.
नि:संदेह फैसला सही है फिर भी फैसले की टाइमिंग को लेकर सवाल उठना लाज़मी है. चार -पांच महीने में देश में आम चुनाव होने हैं ऐसे में लोग इसे मोदी सरकार का सियासी फैसला बता रहे हैं. मोदी सरकार के इस फैसले का कांग्रेस समेत विपक्षी दल खुलकर विरोध नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए मोदी सरकार के इस फैसले को मास्टर स्ट्रोक कहा जा रहा है.
जहां तक बात नाराज़ सवर्णों की है तो सरकार के इस फैसले से उनकी नाराजगी कितनी हद तक कम होगी ठीक से कहा नहीं जा सकता. एससी-एसटी एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटकर जो घाव सवर्णों को दिये गए उसपर आरक्षण का मरहम तो लगा दिया गया लेकिन इस बात को भी याद रखा जायेगा कि एससी एसटी एक्ट के दुरुपोग को रोकने के लिए सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया है.
उधर राम मंदिर पर सुनवाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट में हो रही देरी से संत समाज के साथ साथ आम लोग भी धैर्य खो रहे हैं. संत समाज के लोग भी बीजेपी के पारंपरिक वोटर हैं. साथ ही संघ की तरफ से भी सरकार को कई बार चेतावनी दी जा चुकी है. ऐसे में राम मंदिर को लेकर चुनाव से पहले बीजेपी कोई बड़ा फैसला लेती है या नहीं यह 10 जनवरी के बाद औऱ ज्यादा स्पष्ट हो जायेगा.
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