मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

कोरोना से जीतकर भूख से न हार जायें हम

लॉकडाउन बढ़ा दिये जाने से मुंबई के बाद सूरत के मजदूर घर लौटने के लिए सड़कों पर उतर आये. किसी को सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल भी न रहा.  ऐसे समय में जब रेल और दूसरे तरह की यातायात सेवायें बंद हैं आखिर किस भरोसे सैकड़ों किलोमीटर दूर घर जाने के लिए लोग सड़कों पर आ गए? किसी अफवाह पर भरोसा कर के जमा हो जाने वाले इन लोगों को ऐसा क्या कह दिया जाता है कि सब विवेकहीन हो जाते हैं. साथ ही इन लोगों को कटघरे में खड़ा करने से पहले जानना होगा कि ये किन परिस्थितियों में रह हे हैं.     जब पूरा देश लॉक डाउन की वजह से कैद हो चुका है तब दिल्ली के आनंद बिहार की तरह ही  मुंबई और सुरत में मजदूरों की भीड़ जमा हो जाती है.  धीरे-धीरे जब चीजें स्पष्ट होने लगी तो साफ हुआ कि इसके पीछे दो तरह की चीज़ें काम कर रही थी एक, लॉकडाउन से पैदा हुई चुनौतियां. दूसरा, उन चुनौतियों की आड़ में अफवाहों को दी गई हवा. अफवाह फैलाने वालों पर तो कार्रवाई हो रही है हम बात करते हैं चुनौतियों की...   लॉकडाउन बढ़ने की घोषणा होते ही सूरत सहित तमाम बड़े शहरों में रह रहे प्रवासी मजदूरों के सामने 21 दिन पहले वाला सवाल एक बार फिर से आ खड़ा हुआ है कि काम नहीं मिलेगा अब क्या करेंगे? क्या खाएँगे? कहां रहेंगे? शहरों में रहने वाले प्रवासी मजदूरों की एक सच्चाई यह है कि एक बड़ा तबका जो होटल, दुकानों में काम करता है, काम की जगह ही सोता भी है. निर्माण उद्योग में लगे लोग जहां काम चलता है, वहीं झुग्गी डाल रहने लगते हैं. गार्ड का काम करने वाले कई लोग मिलकर एक छोटा सा कमरा ले लेते हैं और उसी में रहते हैं. काम चलते रहने से कभी उन्हें परेशानी नहीं होती थी, क्योंकि सबके काम का समय अलग-अलग होता है. सुरत में मेरे सोसाइटी (ऋषि बिहार) के गार्ड दुबे जी बताते हैं, “जिस कमरे में दो-तीन लोग मुश्किल से रह सकते हैं, सोचिए उस में छह-सात आदमी जमा हो जाए तो क्या होगा? कहां लेटेगा और कहां खाना बनाएगा. एक-दो दिन की बात हो तो आदमी गुजर भी कर ले लेकिन 40 दिन तो ऐसे में जानवर भी न काट सकेगा इंसान तो इंसान है. ब्रज भूमि सोसायटी में गार्ड का काम कर रहे भूपेंद्र ने बताया कि वे अपनी बेटी के इलाज के लिए अपने रिश्तेदार के यहां आये हुए थे. भूपेंद्र छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं. उन्हें अपनी बेटी का ऑपरेशन करवाना था  ऑपरेशन तो तय वक्त पर हो गया लेकिन घर पहुंच पाते उसके पहले ही लॉक डाउन की घोषणा कर दी गई. भूपेंद्र कहते हैं कि घर जाना जरुरी था. गांव में खेती है गेंहुं की खड़ी फसल सूख रही है.  घर में दूसरा मर्द कोई है नहीं.  रिश्तेदार के यहां कब तक बैठकर मुफ्त की रोटी तोड़ते सो गार्ड की नौकरी कर रहे हैं. देश भर में ऐसे अनगिनत लोग हैं जो मजबूरी में फंसे हुए हैं. प्रधानमंत्री के आहवान पर उन्होंने जैसे तैसे 21 दिन तो बिता दिए लेकिन राज्य और केंद्र सरकार को विचार करना होगा कि ये लोग अगले 19 दिन कैसे काटेंगे? स्थानीय प्रशासन को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जो डेली वेजर्स और डिहारी मजदूर थे उन सभी तक खाद्य सामाज्ञ्री पहुंच भी रही है या नहीं.  ऐसा न हो कोरोना से बच जांये और लोग भूख से मरने लगें.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...