कोरोना वायरस की वजह से पूरी दुनियां कैद हो कर रह गई है. इसका दूसरा पक्ष यह है कि पर्यावरण स्वच्छ हुआ है और साथ ही साफ हुए हैं देश और यहां के मूल निवासियों से नफरत करने वाले चेहरे.
परंतु मैं उन प्रवासियों के बारे में बात करुंगा जो अपने घरों और गांव से निकल कर सैकड़ों किमी दूर बड़े शहरों में लॉक डाउन में फंस गए. कैसे वे अपने दिन काट रहे होंगे आप और हम अपने एसी कमरे में बैठ कर या बालकनी से झांकते हुए इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते. दिन भर की मजदूरी के बाद जिस कमरे में थका हुआ शरीर बिना देरी के सो जाता था उसी कमरे में हफ़्तों से पड़े रहने की पीड़ा आप अपने छत पर टहलते हुए या परिवार के साथ रामायण देखते हुए नहीं समझ सकते. इसके लिए आपको उन घनी मलीन बस्तियों में जाना होगा, उन कमरों में कुछ घंटे बिताने होंगे जहां एसी नहीं है, फ्रीज नहीं है.खाने के नाम पर एक पैकेट है जिसमें आपके द्वारा दी गई पांच रोटी और सब्जी है. मजदूरी कर के स्वाभिमान से नमक रोटी खाने में जो आनंद है वह आपके द्वारा दी गई शाही पनीर में नहीं है. इसका अनुभव आप नहीं कर सकते क्योंकि आप लेने वाले नहीं देने वाले हैं. खाने का पैकेट थमाते समय ली गई सेल्फी में अपना नहीं उस संकोची और विवश इंसान के चेहरे पर झलक रही लाचारी को भी देखिये. आपके मोबाईल कैमरे का कोई भी फिल्टर उसे छिपा नहीं पायेगा.
मैं यह नहीं कह रहा कि जरूरतमंदों की मदद न कि जाए लेकिन मैं यह जरूर कह रहा हूँ कि अगर हो सके तो उसके स्वाभिमान का भी ख्याल रखा जाय. इसके लिए सरकार को भी कदम उठाने होंगे.
कई चरणों में किये जा रहे पोस्ट में बात पलायन और प्रवास की होगी. प्रवासी होने में सुख है या दर्द मैं इस बहस में नहीं जाऊंगा वह आप आने विवेक से समझें.
मजदूर प्रवासी काफी दुख उठाते हैं इसमें दो राय नहीं है.
कोरोना वायरस संक्रमण के प्रसार पर काबू पाने के लिए देश भर में लॉकडाउन के ऐलान के बाद दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर हुआ जमावड़ा हो या सूरत में मजदूरों का हंगामा. यह उस अनिश्चितिता से जुड़ा हुआ है जो कब खत्म होगा इसको लेकर मुकम्मल तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. कल राज्यों के साथ हुई मीटिंग के बाद भी सिर्फ अंदाजे ही लगाये गए. आज उम्मीद है कि कुछ घोषणा हो.
छुट्टियां चाहे जिस भी कारण से हो अधिकतर लोग छुट्टियाँ घर पर ही मनाना चाहते हैं. लॉकडाउन के बाद दिहाड़ी मजदूरों और प्राइवेट नौकरी करने वालों की छुट्टी हो गई. उनमें कोरोना संक्रमण को लेकर जागरुकता की कमी है. वे इसकी गंभीरता को नहीं समझते और उनके लिए यह छुट्टी जैसा ही है. यही कारण रहा कि ट्रेन-बस बंद होने की वजह से काफी संख्या में लोग शहरों से अपने घरों की तरफ पैदल ही झुंड में निकल पड़े, यह एक गंभीर समस्या बन गई.
दूसरी तरफ इस समस्या ने यूपी-बिहार पलायन को एक बार फिर राजनीतिक बहस के केंद्र में ला खड़ा कर दिया.
ऐसा नहीं है कि पलायन केवल यूपी-बिहार से ही होता है या फिर यह नया चलन है. संकट के समय में लोग अपने घर पर ही होना चाहते हैं चाहे वे जहां के मूल निवासी हों. लॉकडाउन में ही महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश, गुजरात से राजस्थान या अलग-अलग हिस्सों में पैदल, साइकिल, ठेला गाड़ी से लोगों के घर तक कूच करने की कई खबरें आयीं. गुजरात से पैदल जाते राजस्थान के लोगों के लिए सड़क किनारे खाने की व्यवस्था करते खुद गुजरात के उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल दिख रहे थे. केरल में तो दिल्ली की तरह ही सैकड़ों की संख्या में प्रवासी घर जाने के लिए सड़क पर उतर आए थे. इनमें यूपी-बिहार के अलावा बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे राज्यों के भी श्रमिक थे.
कोरोना की वजह से उत्पन्न परिस्थितियों ने एक बार फिर से हम प्रवासियों के सामने कई प्रश्न खड़े किये हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग आखिर इतनी संख्या में पलायन को क्यों मजबूर होते रहे हैं?
पलायन के पहले हिस्से में आपने जाना कि लॉक डाउन की वजह से हर छोटे बड़े शहर में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के मजदूर फंस गए. दूसरे राज्यों के मजदूरों की तुलना में उनकी संख्या अधिक है. हमने देखा कि किस तरह नासमझी में ही सही मजदूर मजबूर हो कर पैदल ही अपने घरों की तरफ निकल पड़े. जो फंसे हुए हैं उनमें से कुछ तो पूरी तरह से सरकार और आसपास के लोगों की सहायता पर निर्भर हैं. लॉक डाउन से परेशानी इन मजदूरों को है बाकी के लोगों को नुकसान है लेकिन परेशानी नहीं.
लौटते हैं मूल विषय पर ...
आखिर क्या वजह है कि यूपी बिहार से इतनी अधिक संख्या में लोग दूसरे राज्यों की तरफ कूच कर रहे हैं. सरकार की तरफ से दिये जा रहे तामाम दावों के बावजूद आखिर पलायन क्यों नहीं रुक पा रहा है... इसके कारणों की पड़ताल से पहले पलायन के हालात को समझते हैं.
यूपी-बिहार जैसे राज्यों के संदर्भ में स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसरों का अभाव और शैक्षणिक सुविधाओं की कमी, पलायन की दो मुख्य वजहें हैं. इन दोनों राज्यों से इलाज के लिए भी अल्पकालिक पलायन बड़े पैमाने पर होता है. एक इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार, 1991-2001 के दशक में माइग्रेशन की दर 2.4% (राष्ट्रीय) थी, जो 2001-11 के दशक में लगभग दोगुनी बढ़कर 4.5% पर पहुंच गई. अनुमानों के मुताबिक, हर साल 50 से 90 लाख लोग देश के भीतर पलायन करते हैं. पलायन के पिछे का उद्देश्य शिक्षा और नौकरी है. शिक्षा के बाद बेहतर नौकरी और जीवन यापन का अच्छा स्तर तथा सुविधाओं का आसानी से मिलना पलायन कर रहे लोगों को प्रवासी बनने पर मजबूर करता है. कहते हैं कि बिहार से अस्सी-नब्बे के दशक में अभूतपूर्व पलायन हुआ. गौर करने वाली बात यह है कि पलायन उसके पहले भी हुए लेकिन तब ज्यादातर लोग प्रवासी नहीं बने थे. बिहार में पलायन की वजह बड़े उद्योगों का न होना, लघु व कुटिर उद्योगों का बंद होना और जंगलराज रहा. आज़ादी के बाद से ही इन इलाकों से पलायन हुए और कई शोध बताते हैं कि इसके पहले भी बिहार से पलायन हुए अर्थात पलायन की कहानी काफी पुरानी है।
अगले अंक में जानेंगे कि बिहार से पलायन की जड़ में क्या है?
हम सभी पाटलिपुत्र के स्वर्णिम इतिहास से परिचित हैं. विशाल मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र ने दशकों तक पूरे भारतवर्ष का नेतृत्व किया. परंतु आज स्थिति यह है कि उसी धरती के ज्यादातर लोग किसी न किसी कारण से पलायन कर चुके हैं. हर साल अगली पीढ़ी पलायन और प्रवास की प्रतिक्षा में मैट्रिक और इंटर मीडियट की परीक्षायें दे रही है. खैर मौर्य वंश तो 327 ई.पू. की घटना है. अंग्रेजों के आगमन के बाद से भी अगर देखें तो आप मेरा अभिप्राय समझ सकते हैं.
सन 1812 में पटना की जनसंख्या करीब 3 लाख थी. कलकत्ता (यानी आज की कोलकाता) की 1.75 लाख. 1871 में पटना की जनसंख्या 1.6 लाख रह गई तो कलकत्ता की बढ़कर 4.5 लाख हो गई. पटना जैसा हाल ही भागलपुर और पूर्णिया का भी हुआ. इसका कारण था अंग्रेजों के राज में कलकत्ता में उद्योगों का फलना-फूलना और बिहार खासकर मिथिला के इलाके में देशी उद्योगों का दम तोड़ना. इसी तरह यूपी में कानपुर जैसे शहरों में उद्योग-धंधों ने जोर पकड़ा. नतीजतन, बिहार से पलायन इन शहरों की ओर तेज हुआ. कालांतर में कलकत्ता और कानपुर जैसे शहर के उद्योग भी उजड़ते गए. जिसकी परिणति आज हम दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गॉंव, सूरत, अहमदाबाद, मुंबई जैसे बड़े महानगरों में यूपी-बिहार के लोगों के इतने बड़े पैमाने पर पलायन के तौर पर देखते हैं. हालांकि पलायन उस वक्त भी होता था जब बिहार और यूपी समृद्ध थे. उस समय बिहार और यूपी में बिदेसिया प्रवृति थी. अर्थात बड़े शहर जाओ काम करो और गांव में पैसे भेजो.हालांकि इस प्रवृति में लोग एक समय के बाद अपने गांव आकर रहने लगते हैं वे प्रवासी नहीं बनते. लेकिन एक समय के बाद लोग कमाने वाले शहर में ही बसने लगे. 90 की दशक में बिहार में जिस जंगल राज की वजह से बड़े पैमाने पर पलायन हुआ. उसके बाद यानी जंगलराज खत्म होने के बाद भी लोग वापस नहीं लौट रहे हैं. इसकी वजह है उनका फँस जाना. वे बाहर नौकरी करने लगे, उनका परिवार अब बिहार लौटना नहीं चाहता और वे फँस चुके हैं. क्योंकि बिहार में उद्योग-धंधे एक-एक कर बंद होते गए और नए लगे नहीं. रोजगार के नए अवसर ही पैदा नहीं हुए, और पहले से उपलब्ध अवसर भी समाप्त हो गए. इसने लोगों को बड़े पैमाने पर देश के दूसरे राज्यों में श्रमिक के तौर पर जाने के लिए मजबूर किया.
एक स्टडी बताती है कि सत्ता परिवर्तन के बाद उपेक्षित वर्ग में इस भावना ने जोर पकड़ा कि महानगरों में जाकर मजदूरी कर लेंगे, लेकिन अपने गाँव में नहीं करेंगे. हमारी सामाजिक सरंचना भी ऐसी है जिसमें स्थानीय स्तर पर जो काम करने में लोग लज्जा महसूस करते हैं, वही काम वे बाहर जाकर आराम से करते हैं. उनके मन में यह भाव होता है कि यहां उन्हें कोई देख नहीं रहा.
पुश्तैनी धंधों के खात्मे ने भी श्रमिक के तौर पर पलायन के लिए लोगों को मजबूर किया. यह दो तरह से हुआ. गांवों में नाई, लुहार, कुम्हार का जो काम कर रहे थे उनकी नई पीढ़ी इस काम को आगे ले जाने को तैयार नहीं हुई. वे शहरों की ओर निकल गये. जो लोग पुश्तैनी धंधे से जुड़े रहना चाहते थे उनके लिए गांवों से अन्य वर्गों के पलायन के कारण रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया. धीरे-धीरे उन्होंने भी महानगरों की राह पकड़ ली.
हालात ऐसे हैं कि आज आप गांवों में जाएँ तो पाएँगे कि पुरुष वे ही रह गए हैं जो वृद्ध हैं या कुछ भी करने में असमर्थ.
शिक्षा-व्यवस्था चौपट होने से भी राज्य से बाहर पलायन को गति मिली. पहले पटना, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, भागलपुर जैसे शहर शिक्षा के बड़े केंद्र हुआ करते थे. ज्यादातर छात्र बेहतर शिक्षा के लिए इन्हीं शहरों में पहुंचते थे. उसके बाद कुछ बनारस या इलाहाबाद जैसे विश्वविद्यालयों में जाते थे. दिल्ली तो काफी कम छात्र ही जाया करते थे. लेकिन, 90 के दशक से इस चलन में बदलाव आना शुरू हुआ. आज बेहतर शिक्षा के लिए बाहर जाना ही एकमात्र विकल्प रह गया. यही कारण है कि अब गांव से निकलकर छात्र सीधे दिल्ली, कोटा या दक्षिण भारत के शहरों में जा रहे हैं. शिक्षा प्राप्त कर रोजगार भी बाहर के शहरों में प्राप्त कर रहे हैं और मजबूरी में ही सही प्रवासी होते जा रहे हैं.
सवाल उठ सकता है कि क्या बिहार के सभी शिक्षण संस्थायें बंद हो गई हैं या उनमें छात्र नहीं हैं.. जवाब है कि संस्थाये भी हैं और छात्र भी लेकिन वे किसी तरह ढोयी जा रही हैं. हालत यह है कि राज्य के ज्यादातर विश्वविद्यालय तीन साल में ग्रेजुएशन की डिग्री नहीं दे पाते. ऐसे में कोई छात्र अपना कीमती समय क्यों बर्बाद करना चाहेगा.
बिहार से पलायन की एक दूसरी बड़ी वजह रेल भाड़ा सामान्यीकरण कानून भी है. इस कानून के तहत धनबाद से रांची कोयला की ढुलाई में जितना रेल किराया लगता था, उतने ही भाड़े में यह धनबाद से मद्रास भी पहुंच जाता था. इससे उद्योगपति अपनी इच्छा अनुसार जहां चाहे कोयला आधारित अद्योग स्थापित कर सकते थे. यदि यह कानून अंग्रेजों के जमाने में होता तो टाटा नगर न होता. फिर टाटा बंबई जैसे शहरों में अपना उद्योग खड़ा करते. केंद्र सरकार की इस बेईमानी की वजह से बिहार को कम से कम 10 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ. उद्योगों का राज्य में अपेक्षित विकास नहीं हुआ. न खेती का पंजाब की तरह विकास हुआ. आबादी बढ़ती गई. स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा नहीं हो रहे थे. ऐसे में पलायन होना ही था...
सवाल अब यह कि क्या अब नीतीश के सुशासन के बावजूद भी वह स्थिति नहीं बनी की पलायन रोका जा सके..
बिहार के समृद्ध इतिहास के बावजूद कभी केंद्र और कभी राज्य सरकार के नाकामियों की वजह से बिहार जैसे प्रदेश में लोगों का पलायन न रुक सका.
बिहार की सत्ता में नीतीश कुमार के आने के बाद स्थिति में सुधार तो हुआ लेकिन पूंजी निवेश नहीं हुआ. इसकी कई वजहें हैं. एक तो प्रशासन पर उद्योगपतियों का विश्वास नहीं है.
राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद जब सड़कों का निर्माण बड़े पैमाने पर हुआ था तो कुछ साल के लिए पलायन के दर में कमी देखी गई थी. कुछ लोग राज्य में लौटे भी थे. नीतीश सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं से भी इसमें मदद मिली. लेकिन, जिस अनुपात में आबादी बढ़ी इससे कोई व्यापक असर नहीं पड़ा. अपने शुरुआती कार्यकाल के कामों के दम पर लोगों ने नीतीश की तारीफ तो की बावजूद इसके पलायन के मोर्चे पर कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखता.
क्योंकि पहले बच्चे अच्छी शिक्षा पाने के लिए बिहार छोड़ते हैं. अपने गृह जिले शिवहर और सितामढ़ी के सरकारी शिक्षकों से बात करने पर पता चला कि शिक्षा के लिहाज से बिहार में 80 के दशक से पहले का समय बुरा नहीं था. लेकिन 80 का दशक आते आते कैंपस में गुंडागर्दी बढ़ी क्योंकि अब शिक्षण संस्थानों में नेताओं का दखल होने लगा था. शिक्षक और पदाधिकारी कभी लोभ में तो कभी लालच में डिग्री बेचने लगे इससे शैक्षणिक गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आई.
90 की दशक में भी शिक्षा का पतन जारी रहा.परीक्षाओं में खुलेआम नकल होने लगी और शिक्षण संस्थान डिग्री बांटने के कारखाने बन गए. नीतीश कुमार के आने के बाद भी शिक्षण संस्थानों में नॉलेज बेस्ड सिस्टम डेवलप करने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. अच्छे लड़के कैंपस से दूर होते जा रहे हैं. हालत यह है कि 12वीं के बाद ही छात्रों का पलायन होने लगा है. जैसा कि मैनें पहले भी कहा है कि बिहार में छात्रों और संस्थानों की कमी आज भी नहीं है हालत यह है कि कॉलेजों में सीट खाली नहीं मिलेंगे लेकिन अच्छे लड़के कैंपस में नहीं आ रहे. अच्छे छात्रों का आना बंद हुआ तो शिक्षकों की गुणवत्ता में भी कमी आने लगी.
लालू के बाद नीतीश भी क्षमतावान बिहार को एजुकेश हब बनाने के लिए माहौल तैयार नहीं कर पा रहे हैं. यदि ऐसा हो जाता तो न केवल पलायन रुकता, बल्कि रोजगार भी बड़े पैमाने पर पैदा होता. पलायन रुकता सो अलग बेरोजगारी दूर होती. एजुकेशन इंडस्ट्री ढेर सारे अप्रत्यक्ष रोजगार भी पैदा करता है.
हालांकि हाल के सालों में कुछ निजी संस्थान राज्य में आए हैं. लेकिन वे या तो किसी औद्योगिक घराने से जुड़े हैं या नेताओं की उनमें भागीदारी है. बेहतर संस्थान खड़ा करने के लिए सबसे जरूरी चीज है उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप का न होना. शिक्षा के क्षेत्र में पलायन रोकने की एक ही शर्त है क्वालिटी एजुकेशन का अवसर पैदा करन. क्या बिहार में एजुकेशन कभी यह मुख्य धारा की राजनीति का मुद्दा बन पाएगा? क्या आप बिहार के लोग नेताओं पर दबाव बना पायेंगे कि शिक्षा को लेकर असंतोष कम हो और बिहारी छात्र बिहार में ही शिक्षा पायें. शिक्षा का मुद्दा एक बड़ा मुद्दा बन सकता है परंतु इसके लिए आपको चुप्पी तोड़नी होगी.
बिहार की धरती सालों से अपने होनहार छात्रों और नौजवानों को विवश होकर पलायित होते देख रही है.
बिहारी समाज पर बिहार की राजनीति ने गहरी छाप छोड़ी है. ज्यादा पुरानी बात न करते हुए अगर 90 के दशक की बात करें जब लालू सत्ता में आए तो उन्होंने विकास से ज्यादा सोशल जस्टिस का नारा बुलंद किया. इससे विकास की दौड़ में राज्य करीब-करीब ठहर सा गया. इस समय में जातीय संघर्ष अपने चरम पर था.एक खास वर्ग की उपेक्षा हुई.खेती की हालत भी ठीक नहीं रही. खेती से जुड़े उद्योग धंधे भी बंद होने लगे. इस स्थिति ने सभी वर्गों को राज्य से बाहर पलायन के लिए मजबूर किया.
नीतीश कुमार के आने के बाद से विकास की बातें तो खूब हुई है, लेकिन रोजगार के मौके पैदा नहीं हुए. जमीनी सतह पर उद्योग लगाने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की गई. न ही निवेश ही लाया जा सका. विकास के नाम पर सड़कें, फ्लाईओवर, बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बनी हैं लेकिन इससे पलायन पर खास असर नहीं पड़ा.
इतनी बड़ी आबादी को राज्य के बाहर जाने से रोकने के लिए स्मॉल और मीडियम इंडस्ट्रीज का विकास जरूरी है, जो नहीं हो पा रहा है. अतः आप समझ सकते हैं कि पूर्वांचल, खासकर बिहार से इतने बड़े पैमाने पर पलायन मजबूरी ही है.
अगर सरकारें बिहार और यूपी जैसे जगहों से लोगों का पलायन रोकने पर काम करे तो न सिर्फ महानगरों पर से जनसंख्या का भार कम होगा बल्कि बिहार और यूपी के शहरों में भी बेरोजगारी कम होगी.
पलायन रुकेगा तो बिहार समृद्ध होगा. बिहार के समृद्ध होने से बिहारियों को लेकर दूसरे राज्य के लोगों खासकर महानगरों की धारणा बदलेगी. न तो उनका अपमान हो सकेगा न ही उनके साथ महानगरो में खिलवाड़ किया जायेगा.
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