गुरुवार, 11 जून 2020

गांव vs शहर (कपड़े)

गांव vs शहर
कपड़े

लॉक डाउन के पहले अपने एक मित्र के घर जाना हुआ. जहां पारिवारिक विवाद चरम पर था.  घर के बच्चे पड़ोस में एक बर्थ डे पार्टी के लिए  नये ड्रेस की मांग कर रहे थे.  मित्र उन्हें समझाने का प्रयास कर रहा था कि अभी पिछले दिनों ही तो स्कूल फ्रेंड के बर्थ डे पार्टी के लिए नयी ड्रेस खरीदी थी.  उसके हफ्ते भर पहले भी किसी प्रयोजन के लिए कपड़े खरीदे गए थे.  मित्र के भतीजे ने बिलखते हुए जवाब दिया लेकिन पापा वो सब तो पुराने हो गए...  क्योंकि सब पहने हुए हैं... और जूते भी लेने है क्योंकि रेगुलर वाला पहन कर नहीं जा सकते... मैचिंग लेना होगा.. पार्टी वेयर...  तय हुआ कि कल सुबह मॉल जाकर शॉपिंग किया जायेगा... बात समाप्त हो गई.
लेकिन मेरे लिए तो बात शुरु हुई थी...
 
मैं अपने बचपन में जा चुका था...  
हर साल छठ के सायं घाट के दिन एक और प्रतिसपर्धा होती थी. घाट पर मानो फैंसी ड्रेस कंपटीशन का आयोजन होता था... हर साल मेरे उम्र के लड़के व हर उम्र की लड़कियां मेरे निकलने का इंतजार करती थीं.  कक्षा 8वी की घटना याद है जब मैं अपने नये सिलवाये हुए कपड़े पहन कर बाल संवार रहा था. स्वयं को कामदेव का अवतार समझ रहा था. मन में दिग्विजय की चाहत और अहंकार, चेहरे पर हल्की मुस्कान का कारण बन रहे थे. तीनों भाई तैयार हुए...  और बाहर निकले... घर से निकल कर गांव का भ्रमण शुरु ही हुआ था कि गांव की एक काकी की नज़र मुझ पर पड़ी.  पूजा का मुख्य आयोजन स्थल होने के कारण वहां चहल पहल अधिक थी.  मैंने काकी को प्रणाम किया... काकी ने खुश रहने का आशिर्वाद देते हुए कहा कि वाह राजन कपड़ा बहुत खिल रहा है तुमपर लेकिन यह क्या? नये कपड़ों के बीच ये पुराना टूटा हुआ चप्पल क्या कर रहा है?
मैं अपने हृदय में प्रसन्नता की अनुभूति कर पाता उसके पहले ही चप्पल की तरफ ध्यानाकर्षण करवाये जाने से मेरी दशा उस मोर की तरह हो गई जो बादल को देखकर पंख खोलकर नाचता है और अपनी खूबसूरती पर इतराता है लेकिन जब उसकी नज़र पैरों पर पड़ती है तो एक मायूसी छा जाती है.  मुझे ग्लानि इस बात की नहीं हो रही थी कि मैने चप्पल कैसा पहना है बल्कि इस बात की हो रही थी कि अगर कोई बूट वाला बंदा झार झूर कर ( बन संवर कर) आ गया तो सर पर से ताज छीन जायेगा. अब चप्पल पहनकर तो पूजा होती नहीं है सो हमलोग नये चप्पल जूतों पर कम ही ध्यान देते हैं. बात यह भी है कि जब तक चप्पल कम से कम तीन चार बार न टूट जाये तब तक खरीदने को कह नहीं सकते.  पहली और दूसरी बार 
टूटे तो मोची से सिलवाकर काम चल जाता था.  उस वक्त मॉल कल्चर नहीं था, रेडिमेड कपड़े अच्छे नहीं माने जाते थे. हमलोग रेडिमेड खरीद भी लिये तो अगले दिन कहीं न कहीं से सिलाई खुली मिलती थी. बाद में मां को सिलने पड़ते थे. ज्यादातर  साल में एक ही बार नये कपड़े बनते थे... छठ पूजा में... ज्यादा कपड़ों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी.  नये कपड़े बनने तक पिछले साल वाले सुपर नये होते थे और उसके पिछले साल वाले नये. पुराने कैटगरी में आने के लिए कपड़ों का कम से कम 3 साल तक टीके रहना आवश्यक होता था.
अब लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी है. खुशियां कम हो  गई हैं. हर पर्व और त्योहार का इंतजार सिर्फ पूजा के लिए नहीं बल्कि नये कपड़ों के लिए भी होता था. आज भी खुद के लिए कपड़े लेते वक्त उन्हीं खुशियों को खोजता फिरता हूं. आज भी नये कपड़े पहनते समय वही बचपन सा उतावलापन होता है. लेकिन हर फंक्शन के लिए अलग कपड़े नहीं खरीदता. 

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...