शनिवार, 15 अगस्त 2020

स्वतंत्रता की प्रसन्नता और अतीत की सिहरन


 स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें, देरी से दे रहा हूं क्योंकि झंडे के साथ सेल्फी लेकर पोस्ट नहीं कर सका. स्कूल के समय 15 दिन पहले से जोश से भरा रहता था.  देश भक्ति कविता से लेकर स्कूल के ड्रामे  में अपने किरदार का रिहर्सल किया करता था. जब से नौकरी करने लगा हूं यह सब चीजें छूट गई हैं.  मन तो करता है लेकिन मौका नहीं मिलता कुछ करने का. 

दूसरी बात यह भी है कि मैं स्वतंत्रता दिवस से अधिक उल्लासित गणतंत्र दिवस पर होता हूं.  स्कूल के इतिहास के किताब ने स्वतंत्रता दिवस को लेकर मेरे मन में ऐसी सिहरन पैदा कर दी थी जिसे महसूस कर आज भी सहम उठता हूं.  स्वतंत्रता दिवस को लेकर  पाठ को पढ़ते हुए मैं कल्पना करने लगता उस समाज के बारे में उस परिवेश के बारे में घट रही घटनाओं के बारे में..  खुद को गोली मारते सव्तंत्रता सेनानी,  फांसी पर लटकाये जाते 16 साल के नौजवान..... लाठियों से पीट पीट कर बुजूर्गों का कत्ल... भीड़ पर फायरिंग मेले में कुंआ कुंए में औरतें बच्चे.... गोलियों की आवाज़... धार्मिक संघर्ष.... देश का बंटवारा...डायरेक्ट एक्शन...  चील कौवे के द्वारा लाशों का नोचा जाना... महामारी.. भूखमरी.... रेल के डब्बों से निकले कटे हाथ.. रेते गए सिर....   हर तरफ चित्कार ... हा हा कार...

सिहरन को महसूस कीजिए .... आपको नेहरु जी का अंग्रेजी में दिये गए भाषण का वो हिस्सा भी अच्छा नहीं लगेगा

"At the stroke of the midnight hour, when the world sleeps, India will awake to life and freedom."

 यहाँ तमाम संघर्षों के बाद भी देश को बाँट दिया गया. यह बंटवारा अब भी  नासूर की तरह रिसता रहता है. आजादी के बाद भी हमने औपनिवेशिक प्रतीकों को ध्वस्त नहीं किया.  उसी में गौरव महसूस करने लगे. आजादी के बाद भी जॉर्ज पंचम की मूर्ति दिल्ली में, या क्वीन विक्टोरिया के नाम पर इमारत कोलकाता में क्यों है? आखिर ‘गेटवे ऑफ इंडिया’ को क्यों नहीं तोड़ दिया गया? क्या संसद भवन जैसी इमारतों को डायनामाइट से उड़ा नहीं देना चाहिए था? क्या इनकी दीवारों से गुलामी की बदबू नहीं आती होगी कॉन्ग्रेस के नेताओं को? अंग्रेजों की छाप की हर वैसी चीज को मिटा देना था, जो हम आने वाले समय में बना सकते थे. सड़कें और रेल को अपवाद मान सकते हैं ये हमारे काम की हैं, इसलिए उनको रखते, लेकिन मूर्तियों, इमारतों और नामों को ढोने के पीछे क्या कारण रहे होंगे समझ से परे है? क्या कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र अपने आपको गुलाम रखने वाली, हत्यारिन सरकारों की मूर्तियाँ ढो सकता है?

खैर, जो हो गया, वो तो हो ही चुका है लेकिन पिछले कुछ सालों में स्वतंत्र भारत में शायद पहली बार राष्ट्रवाद को ले कर एक जागरुकता आई है, खासकर नौजवानों में जिस तरह राष्ट्रवाद का संचार हुआ है वो मुझे आशान्वित रखती है. मुझे यह संतुष्टि मिलती है कि अब युवा वर्ग सवाल करने लगा है, दुरात्माओं के मुँह बंद करने लगा है, और वाकई में राष्ट्र को ले कर प्रतिबद्ध दिखता है. देश पहले के तुलना में काफी बदला है इतनी जल्दी देश नहीं बदलता. आशाएँ बहुत जल्दी बदलती हैं, देश को बनने में समय लगता है. देश को बनने दीजिए. देश को आगे बढ़ने दीजिए शायद देश की नई उपलब्धियां और कीर्तीमान और उनमें युवाओं का योगदान मेरी सिहरन को कम कर सके.  

स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें...

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...