मन अशांत है, ग्लानि के साथ क्रोध के भाव उमड़ रहे हैं. आंखों के आगे से ये झुर्रियों वाला चेहरा हट नहीं रहा है. ये बेजान तस्वीर जिस बुजुर्ग महिला की है उसका शरीर भी अब बेजान हो चुका है. इसके बावजूद ऐसा लग रहा है कि झुर्रियों वाली ये बुजुर्ग महिला इस समाज को हम सबको कोस रही है. हम इस महिला को घेरे खड़े हैं और ये घूम-घूमकर हमारे पाप गिनवा रही है. वहां बहुत सारे लोग हैं लेकिन ये दादी मुझे घूर रही है, हर वाक्य के अंत में इसकी क्रोधित आंखें मुझे निशाना बना रही हैं... ऐसा लग रहा है मुझे धिक्कार रही है... भारत वर्ष की धरा जहां मातृ देवो भवः और पितृ देवो भवः के रट लगाये जाते रहे हैं वहां एक बुजुर्ग मां को आश्रय विहीन कर दिया गया, मां को सड़कों पर छोड़ दिया गया... उस वक्त में जब उन्हें देखभाल की सबसे अधिक जरुरत थी. उनकी देखभाल करने के बदले उन्हें घर से खिंचकर फेक दिया गया. ठोकरे खाती हुई मां के शरीर में अब इतनी शक्ति नहीं बची थी कि ठोकरों का चोट सह सकें. चोट लगी, घाव हुआ कीड़े पड़ गए. शरीर जो वृद्ध और कमजोर पहले से था अब संड़ने लगा. मरने के लिए एकांत चाहती थी. सड़क के किनारे मैदान में ईंटो के बीच जगह मिल गई. वहीं पड़ी रही मौत के इंतजार में कोई पानी भी पूछने नहीं आया. आता भी कैसे मेरे संड़े हुए शरीर की बदबू वातावरण को प्रदूषित करे न करे किसी की नाक को पसंद नहीं आ सकता.
भगवान मेरी विनती नहीं सुन रहे.. वो भी आज के समाज की तरह निष्ठुर हो गए हैं शायद... लेकिन समाज अधिक निष्ठुर है या संवेदनहीन?
खैर जो भी है इतना तो तय है कि अपने हिस्से का भुगतना तो सबको है.
ऐसी कहानी सिर्फ मेरी नहीं है... न जाने कितने बुजुर्ग दंपतियों को बाहर निकाल दिया.. उन्हीं के घर से उन्हीं के अपने खून ने...
मेरा एक बेटा सरकारी ऑफिसर है दूसरा नेता है.. पोती पुलिस में है. सब बड़े अधिकारी हैं इसलिए मुझे रख न पाए. क्योंकि देखभाल करने के लिए इनके पास समय नहीं है... तो उन्होंने मुझे निकाल फेका न रहूंगी न किसी को सेवा करने की जरुरत होगी. उन्हें मेरे रहने न रहने से फर्क नहीं पड़ता, जिनका जनम मेरे उदर से हुआ है...
जिनको मैंने जनम नहीं दिया वो आये और मुझे अस्पताल ले गए ऐसा लगा शायद मेरे बच्चों को रहम आ गई हो,,, आंखें खुलीं तो भ्रम दूर हुआ. वे कोई संस्था वाले थे... हो हल्ला हुआ तो मेरा एक बेटा आया मुझे ले गया.. मैं नहीं जाना चाहती लेकिन शरीर में इनकार करने लायक शक्ति ही नहीं बची... भगवान को याद किया अब तो दया करो प्रभु... प्रभु ने दया की मेरे बेटे ने दबाव में आकर मेरे शरीर को घर लाया था ... मेरी आत्मा प्रभु के घर चली गई...
मौत तो एक दिन सबको आनी ही है लेकिन क्या एक मां भारत के बदलते समाज में सद्गति नहीं पा सकती?
मेरे पास जवाब नहीं है मैं इस भीड़ में मुंह छुपा कर कहीं खो जाना चाहता हूं जहां ये झुर्रियों वाली बुजुर्ग महिला की आंखें मुझे न देख सके....
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