सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह आज कृषि बिल के पक्ष व विपक्ष में दायर की गई याचिकाओं पर सुनवाई की वह सबके सामने है. एससी ने कृषि कानूनों पर विवाद को निपटाने के लिए एक समिति के गठन की बात कही. किसानों ने सुप्रीम कोर्ट की पेशकश भी ठुकरा दी है. उनका कहना है कि वे किसी भी समिति के सामने पेश नहीं होंगे.
हों भी कैसे किसानों के नाम पर जो लोग दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे हुए हैं वो 6 महीने का राशन किसी की बात या प्रश्ताव को स्वीकार करने के मंशा से लेकर थोड़ी पहुंचे.
सिलसिलेवार तरीके से देखा जाए तो कृषि कानूनों में संशोधन की मांग को लेकर शुरु हुआ आंदोलन आज कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग करने लगा है. आश्चर्य की बात तो यह है कि आज सुनवाई के दौरान चीफ जस्टीस का ध्यान इधर क्यों नहीं गया?
चीफ जस्टीस बोबडे ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि आप अभी तक मामले को सुलझा नहीं सके... इसलिए कोर्ट निराश है . अच्छी बात है यह सरकार की कमजोरी या नाकामी ही है कि आंदोलन आज तक जारी है लेकिन चीफ जस्टीस लगे हाथ कानून का विरोध कर रहे लोगों से भी पूछ लेते कि आपको कानून के किन बिंदुओं से आपत्ति है. जिन बिंदुओं से आपको आपत्ति है क्या सरकार उसे दूर करने का आश्वासन नहीं दे रही?
कोर्ट ज्यादातर समय कानून पर स्टे लगाने की बात करती रही... जो उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है.
आपको याद होगा सुप्रीम कोर्ट ने 2019 के आम चुनाव से पहले हरिजन एक्ट के तहत गिरफ्तारी से पहले आरोपी या घटना की प्रारंभिक जांच के आदेश दिये थे. आरोप लगाने के साथ ही गिरफ्तारी और इसी तरह के कई और बातों को हटाया गया था. देश भर में इस फैसले को सवर्ण बनाम दलित बना दिया गया.. आनन-फानन में यही मोदी सरकार एक कानून लेकर आई और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया गया. जबकि अदालत ने बेकसूरों को फंसाये जाने के मामलों में बढ़ोत्री को लेकर उक्त फैसला दिया था. फिर भी किसी की हिम्मत नहीं हुई कि सरकार से सवाल करती ... खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी संज्ञान नहीं लिया....
क्या कोर्ट यह नहीं जानना चाहेगी कि आखिर डेढ़ राज्यों के तथाकथित किसानों को ही इन कानूनों से परेशानी क्यों है? भारत के बाकी के ढ़ाई दर्जन राज्यों में किसानों को इससे आपत्ति क्यों नहीं है?
कोर्ट और जनता के सामने चीजें स्पष्ट होनी चाहिए विरोध कानून का है या एक व्यक्ति और पार्टी का?
आज सुप्रीम कोर्ट दंगो की आशंका की बात कर रहा है तो कोर्ट यह भी बताये कि संसद में कानून बनाने का अधिकार किसको है? 27 करोड़ लोगों के समर्थन से बनी लोकतांत्रिक सरकार को या फिर हजार दो हजार की मुंहजोर भीड़तांत्रिक ब्लैकमेलर्स को?
यदि ऐसा हुआ तब तो सरकार के हर फैसले पर कहीं न कहीं आंदोलन शुरु हो जाएगा हजार 500 लोग जमा होकर हुर्दंग मचाएंगे दंगे की धमकी देंगे ... फिर कोर्ट क्या करेगी उन कानूनों पर भी स्टे लगा देगी? तो एक चुनी हुई सरकार अपने चुनावी वादों को कैसे पूरा करेगी? कुछ लोग धरना देना और विरोध प्रदर्श को डेमोक्रेटिक राइट कहते है. प्रदर्शण अगजनी हिंसा ब्लैकमेलिंग चुनी हुई सरकार को काम न करने देना... क्या यही डेमोक्रेसी है या ये Too much of Democracy है... सोच कर बतायें...
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