गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

भारतीय समाज और टूटते परिवार...


घर की परिकल्पना कैसी हो? 
क्या आप भी अपने घर के बुजुर्ग को एक ऐसी मूर्ती समझते हैं जिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी चाहिए होती है?  

भारतीय सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है और  भारतीय जीवन पद्धति का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि यह विश्व की सर्वोत्तम पद्धति हुआ करती थी. भारतीय समाज में  परिवार का महत्व सर्वाधिक है. आदिकाल से ही परिवार ने वृद्धों का न सिर्फ सम्मान किया है बल्कि
उनकी शारीरिक,आर्थिक और भावनात्मक आवश्यकताओं का पोषण भी किया है. संयुक्त परिवार व्यवस्था में वृद्ध व्यक्तियों के हाथों में परिवार की सत्ता केन्द्रित होती थी. परिवार में उनका प्रभुत्व और अत्याधिक सम्मान था. हर तरह के निर्णय लेने का अधिकार था. परन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आधुनिकीकरण, नवीन जीवन शैली और समाज पर पश्चिमी चकाचौंध ने परिवार की परम्परागत व्यवस्था को विखंडित कर दिया है तथा उनके स्थान पर एकाकी परिवारों का प्रचलन बढ़ा है. एकाकी परिवार में बुजुर्गों का प्रभुत्व ही नहीं बल्कि उनका सम्मान भी जाता रहा. एकाकी परिवार युवा पीढ़ी के लिए उपयुक्त व सुविधाजनक सिद्ध हो रहा है. एकल परिवार में रहते हुए हम आज भावनात्मक रुप से विकलांग हो रहे हैं. हम अधिक से अधिक सुविधायें पा लेना चाहते हैं.  सुविधाओं की लालसा के कारण पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है. अब हम अपनी खुशियाँ परिवार या परिवारजनों के साथ में नहीं बल्कि अधिक सुख साधन जुटाने में तलाश रहे हैं. यही सुख साधन धीरे-धीरे हमसे अपने बुजुर्गों के साथ का बलिदान मांग रहा है. यही संयुक्त परिवार के बिखरने का कारण बन रहा है. 
आज के युवाओं के लिए बुजुर्ग व्यक्ति घर में रखे किसी मूर्ति की भाँति हैं जिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी, कपड़ा और दवा-दारू की आवश्यकता होती है.  उनके नजरिये के अनुसार बुजुर्ग लोग अपना जीवन जी चुके होते है. उनकी सम्पूर्ण इच्छाओं, भावनाओं और आवश्यकताओं को हम सीमित कर चुके हैं.  हमारी अपनी महत्वकांक्षाएं उनपर हावी हैं. जबकि आज के बुजुर्ग पढ़े लिखे और उच्च मानसिक स्तर वाले हैं और पढ़े लिखे न भी सही तो क्या उन्हें जीवन के अंतिम पड़ाव में प्रतिष्ठा से जीने की लालसा नहीं होनी चाहिए? इस लालसा को आपकी महत्वकांक्षाएं मार रही हैं.   
 परिवार पर बढ़ते आर्थिक बोझ, शहरों में आवासीय समस्याओं, अत्यधिक मंहगाई व सीमित आय के कारण परिवार के युवा सदस्य माता-पिता को अपने साथ रखने में असमर्थ हैं. जो संयुक्त परिवार शेष हैं भी वे परम्परागत आदर्शों से बहुत दूर हो चुके हैं.  वृद्धजन न केवल पारिवारिक देखभाल से वंचित हो रहे हैं, परिवार में वृद्धों के प्रति उपेक्षा की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है.  बच्चों में बढ़ रही स्वायत्तता की भावना के कारण माता-पिता व बच्चों के सम्बन्ध शिथिल हो रहे हैं. 
परिवार के बच्चे बड़ों के साथ रहने को राजी नहीं है. 
याद रहे जो परिवार के सदस्यों के साथ रहने में राजी न हो, वह स्वयं के साथ भी नहीं रह पाएगा... जो स्वयं के साथ भी न रह पाएगा वह हमेशा दूसरों के आस पास जाने अनजाने उस खालीपन को तलाशता फिरेगा जो उसे परिवार के सदस्यों के साथ मिलनी चाहिए थी.  
अपने आस-पास देखिये जो परिवार खुशहाल है या जो परिवार आगे बढ़ रहा है उस परिवार में आपके परिवार से अलग है क्या है? वह है सहमति और साथ...  परिवार में रहने का सही तरीका होता है सभी सदस्यों से सहमत होकर, समर्थन देते हुए, सहयोग करते हुए साथ रहना. सभी सदस्यों का अपना-अपना मत होते हुए भी एकमत निर्णय और उस निर्णय पर सभी का समर्थन प्राप्त हो जाए तो पहली सफलता यहीं मिल जाती है.   परिवार में साथ निभाना बड़ा महत्वपूर्ण है. जिस दिन परिवार के बाकी सदस्यों का सचमुच साथ निभाते हैं, उस दिन आपका अहंकार गिरता है और जैसे ही अहंकार गिरता है आप सकारात्मकता की ओर चल पड़ते हैं. परिवार में मतभेद भी होते हैं लेकिन मतभेद जब तक मनभेद न हो जाए वह हानिकारक नहीं होता.  मतभेद से नहीं डरना चाहिए लेकिन मनभेद को पनपने भी नहीं देना चाहिए. मतभेद तर्कों से दूर होता है लेकिन मनभेद तर्कों और दलीलों से बढ़ता जाता है.
खुशियां बांटने से बढ़ती हैं और दुख बांटने से कम होता है.  अर्थात परिवार बड़ा तो खुशियां बढ़ती जाएंगी...  और दुख कम होता जाएगा...  

((हमारे समाजिक व्यवस्था को जीवित रखने की एक कोशिश))

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...