पूरी दुनियां में भारत ही एक मात्र देश होगा जहां लोग अपनी राष्ट्रभाषा के लिए गर्व से कहते हैं कि मेरी हिन्दी कमजोर है. ऐसा वो अंग्रेजी में कहते हैं "माइ हिंदी इज नोट सो वेल बट.... यू नो...." यो यो
अपने बच्चों से हिन्दी में बात तक करना इन्हें अपने सोशल स्टेटस की हानि जान पड़ती है. टूटी-फूटी और आधी-अधूरी ही सही बोलेंगे अंग्रेजी हीं...
बगीचे में टहलते हुए एक शुद्ध भारतीय मां अपने बच्चे से जब 'पापा को हैंड (हाथ) दो' कहती है तो उसे लगता है कि सुनने वाले उसे उच्चतम स्तर के पढ़े लिखे समाजिक प्राणियों की श्रेणी में रखेंगे. बात 2 एक लोगों या परिवार तक सीमित नहीं है लगभग हर जगह उदाहरण मिलेंगे जो हिंदी के बीच अंग्रेजी को मिलाकर गर्व का अनुभव करते हैं. सच कहूं तो मैं बड़ी कठिनाई से अपनी हंसी रोक पाता हूं. इसलिए नहीं कि मुझे अंग्रेजी से घृणा है परंतु इसलिए कि मुझे अपने राष्ट्रभाषा से प्यार है. मैं अंग्रेजी अथवा किसी दूसरे भाषा को सीखने का विरोध नहीं करता. विरोध इस बात का है कि उसे अपने दैनिक उपयोग की वस्तु नहीं बनानी चाहिए. उसके लिए हिंदी ठीक है. अंग्रेजी ही क्यों दुनियां के विकसित देशों की सभी भाषाओं का ज्ञान होना जरुरी है. परंतु क्या यह विचित्र नहीं है कि एक शुद्ध भारतीय दूसरे शुद्ध भारतीय से हिंदी आते हुए भी सिर्फ इसलिए अंग्रेजी में बात करते हैं कि सामने वाला उसे कमतर न आंके? मुझे ऑफिस या अन्य स्थान पर जब ऐसे लोग बात करते दिखाई पड़ते हैं तो ऐसा लगता है अंग्रेजी का एक युद्ध चल रहा है जिसमें कोई हार मानने को तैयार नहीं है. एक से एक वाक्य फर्राटेदार अर्जुन के बाण की तरह... बात खत्म हो चुकी है लेकिन अंतिम वाक्य के लिए भी 2-4 वाक्य और बोले जाते हैं... ताकि सुनने वाले आखिरी बोलने वाले को याद रख सकें. हिन्दी को लेकर इस तरह का पागलपन नहीं है.
किसी भी समाज में सबसे बड़ी चुनौती वहां के बुद्धिजीवी खड़ी करते हैं. भारतीय समाज में हिंदी भाषी को सिरे से मूर्ख मान लेने से ये बौधिक प्रतिस्पर्धा काफी कम हो गई है. एक तो वैसे भी मौके बहुत कम है ऐसे में अंग्रेज़ी न जानने को ‘अयोग्यता’ न माना जाता, तो सोचिए ज़रा, नौकरियों के लिए कितनी मारकाट मचती.
अब तो हिंदी भाषियों को एक ब्रांड के रुप में निरुपित किया जाने लगा है 'एचएमटी' यानी हिंदी मीडियम टाइपस. एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए आजकल यही कहा जा रहा है. फिर भी हिंदी उदार है. इसे हिंदी भाषा की उदारता नहीं तो क्या कहेंगे जो अपने ही लोगों का अपना मज़ाक उड़ाने की इतनी छूट देती है?
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