शनिवार, 25 जून 2022

सिनेमा देखने का असभ्य तरीका ज्यादा मनोरंजक होता है... पढ़ कर देखिए


   सिनेमा का प्रभाव हम बिहारियों पर इतना पड़ता है कि पढ़ लिख कर एसडीएम बनने के बाद भी भूत सवार रहता है. शातिर अपराधियों से लेकर बिना हेलमेट बाइक चला रहे किशोरों में विलेन नज़र आता है. फिर वही होता है जो एक विलेन और एक हीरो के मिलन पर होता है, दे दना दन... खैर इस पर फिर कभी अभी विषय अलग है. 

कोरोना की तीव्रता कम हुई तो देश के सिनेमा हॉल फिर से खुले.एक से बढ़कर एक फिल्में आई. खूब संख्या में लोग सिनेमा देखने पहुंचे.कुछ लोगों ने मुझसे पूछा आप कई सालों से सिनेमा नहीं गए आपको तो फिल्मों में बड़ी दिलचस्पी है.मैंने कहा मैं अब सभ्य समाज का हिस्सा बन चुका हूं, लेकिन मुझमे बहुत असभ्यता बची हुई है.सभ्य लोगों के बीच एडजस्ट करने में दिक्कत हो सकती है.थिएटर में सपरिवार फिल्म देखने के पक्ष में भी मैं नहीं रहा... किसी भी असमान्य दृष्य पर आप असहज हो सकते हैं. 

  एक तो फिल्म देखना इतना महंगा हो चुका है कि फिल्में आसानी से 100 करोड़ कमा लेती हैं. साथ में पॉपकोर्न और कोल्ड्रिंक वालों की भी चांदी है. बात पैसों की नहीं है इतना तो कमा ही लेता हूं कि महीने में एक बार पीवीआर में एक शो फिल्म देख सकूं. आजकल के महंगे थिएटर्स में फिल्म बड़े ही सभ्य तरीके से शांत माहौल में देखा जाता है.आप कहेंगे यह तो अच्छी बात है इसमें परेशानी क्या है?  लेकिन मुझे इस शहरी सभ्यता से बड़ी चिढ़ है. यहां लोग जताते हैं कि वे सभ्य हैं.साथ ही वो यह भी जता जाते हैं कि दूसरे असभ्य हैं.मैं असभ्य होते हुए सभ्य लोगों के बीच पकड़ा नहीं जाता.यदि सूट पहन लिया तो लोग अंग्रेजी में बात करते हैं मुझसे, फटी जींस पहनकर कूल डूड भी बन जाता हूं, लेकिन इन सब के बीच हवाई चप्पल पहनकर चट-चट बोलते हुए चलना मुझे फिर से गंवार बना देता है... वो अलग बात है.खैर अब जो है सो है... फिल्म पर लौटते हैं.

फिल्म देखते हुए मेरा फोकस मनोरंजन पर होता है.मुझे यह फर्क नहीं पड़ता की जोर से हंस पड़े तो बगल वाला मुझे असभ्य समझेगा.सभ्य लोग हमेशा नाप कर हंसते हैं.आवाज़ की आवृत्ति (FREQUENCY) तय होती है. 

अब आप ही सोचिए कि स्क्रीन पर बॉलीवुड की खूबसूरत अदाकारा( अपने-अपने पसंद वाली की कल्पना करें) आई और लोगों ने आह तक नहीं भरी. सिर्फ यह सोचकर की बगल वाला क्या सोचेगा.सोचिए पैसे आपने दिए हैं टिकट के और सोच बगल वाले के बारे में रहे हैं.

अब हम बताते हैं फिल्म देखना क्या होता है. 

सिनेमा हॉल के पास पहुंचते ही गुटके व पान के पीक की मिश्रित सुगंध वातावरण में फैली होती है. दूर से अंदाज़ा लग जाता है कि अब सिनेमा हॉल पहुंचने वाले हैं. विंडो पर टिकट की लाइन में कहीं बीच में घुसने वाले से बहस हो रही होती है तो कहीं गाली का मुकाबला चल रहा होता है. टिकट लेने के बाद शुरु होता है इंतजार पहले वाले शो के टूटने का... टिकट पर भले ही आपके सीट का नंबर लिखा हो अंदर जाकर बैठना अपनी ही सीट पर है फिर भी छोटे से द्वार के आगे सबको आगे खड़ा होना है, जैसे ही दरवाज़ा खुले की अंदर की तरफ भागें... 

मुकेश वाला घिनौना विज्ञापन आज भी आता है या नहीं पता नहीं. धूम्रपान रोकने के और भी तरीके हैं. यह बताना जरुरी है कि इतना टार आपको बीमार, बहुत बीमार कर सकता है? आवाज़... बंद करो ये सरकारी परचार...साला, सिनेमा चालू करो....

सभ्य दर्शकों के थिएटर में भी यह विज्ञापन दिखाया जाता है. अंतर यह है कि वहां जानू और बाबू लोग कोहनी मार कर कहती हैं देखा..देखा न? वैसे हाईब्रिड बेबी, जानू और बाबू लोगों को स्मोकिंग कूल लगता है.

फिल्म के शुरुआत से ही आम आदमी मस्त एंजॉय करता है. 

जब फिल्म में हीरोइन की एंट्री होती है,तब यह नहीं सोचा जाता कि बगल वाला क्या सोचेगा.तब सीट पर खड़ा हो कर गमछा लहराया जाता है. डायलॉग न सुना जाता है न किसी को सुनने दिया जाता है.  आइटम सॉन्ग पर नर्तकी का पूरा साथ दिया जाता है.सीटी बजा बजाकर नर्तकी को प्रोत्साहित भी किया जाता है. जमकर हूटिंग होती है. शोर में कई बार गाना गुम हो जाता है.

एक्शन सीन में भी 10-10 गुंडो पर हीरो इसलिए भारी पड़ जाते हैं क्योंकि हर मुक्के पर मार...मार का हल्ला मचाकर यही दर्शक उनमें जोश भर देते हैं. आम जनता जिसे आप असभ्य समझते हैं  मारपीट के 2-3 मिनट बाद तक प्रसन्न रहती है. फिल्म देखने का मतलब कहानी देखना नहीं है, फिल्म देखने का मतलब है हीरो दमदार हो, हीरोइन सुंदर हो, आइटम सॉंग हों जिसपर नाचा जा सके और कुछ जोशिले दृश्य हों बस... पैसा वसूल. 

फिल्म ख़त्म होने को आती है. लोग उठ रहे होते हैं इस बीच पैर पर पैर पड़ जाने को लेकर तो धक्का लग जाने को लेकर लड़ाई छिड़ सकती है. इस वक्त सभी अपने आप को फिल्म वाला हीरो समझ रहे होते हैं, जोश हाई होता है. समझाने वाले लोग जब तक मामले को रफा-दफा करा रहे होते हैं... हां भाई, सभ्य लोग जब तक मामले को रफा-दफा करा रहे होते हैं तब तक कहीं से आवाज़ आती है ...मार साले को...और फिर धक्कम-धूक्की होते हुए लोग बाहर निकल कर समझौता कर लेते हैं.कोई फिल्म के गाने को गुनगुनाता हुआ तो कोई एक्शन सीन वाले हीरो की जगह खुद की कल्पना करता हुआ अपने दैनिक रुटिन में विलीन हो जाता है... इंतज़ार होने लगती है अगली फिल्म की... जाईये कभी कृष्णा टॉकिज.

 Rajan Kumar Jha

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विजयी भवः

सुमार्ग सत को मान कर निज लक्ष्य की पहचान कर  सामर्थ्य का तू ध्यान  कर और अपने को बलवान कर... आलस्य से कहो, भाग जाओ अभी समय है जाग जाओ...